गीले कागज़ से रिश्ते....लिखना भी मुश्किल,जलाना भी मुश्किल

 पिछले दिनों मुंबई और पुणे पर 'स्वाईन फ्लू' का कहर था. मेरे परिचितों में कोई 'स्वाईन फ्लू' से पीड़ित तो नहीं था पर काफी लोग बीमार चल रहें थे. पता नहीं कौन से कुग्रह चल रहें थे कि एक समय तो मेरे जाननेवालों में से छह लोग हॉस्पिटल में थे. किसी की माँ, किसी के पिता,किसी की पत्नी तो किसी के पति...बाकी सारे लोग तो स्वस्थ हो कर हॉस्पिटल से घर आ गए. पर मेरे सामने वाली फ्लैट में रहने वाली आंटी इतनी खुशकिस्मत नहीं रहीं. पास के नर्सिंग होम वाले,'वायरल' और फिर 'मलेरिया' समझ कर इलाज करते रहें और जब नानावटी में भर्ती किया गया तो पता चला 'डेंगू' है और १७ दिन आई.सी.यू में रहने के बाद वो साँसों की लडाई हार गयीं. ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे.

 

 

ये बुजुर्ग तमिल दंपत्ति अकेले ही रहते थे. एक ही बेटा है जो मर्चेंट नेवी में है. बहुत ही धार्मिक महिला थीं वो. कामवाली के सफाई करके जाने के बाद भी घर के बाहर,सीढियों पर और कभी कभी तो लिफ्ट में भी पोछा लगातीं. दरवाजे के बाहर रोज रंगोली बनातीं.जब सुबह मैं छः बजे 'मॉर्निंग वाक्' के लिए निकलती तो देखती वो लम्बे से स्टूल पर चढ़ कर दरवाजे के ऊपर लगे 'लक्ष्मी गणेश' की तस्वीर पर फूल चढा कर दीपक दिखाती होतीं. मैं अपने दरवाजे के ऊपर लगी 'लक्ष्मी गणेश' जी की तस्वीर से रोज मन ही मन माफ़ी मांग लेती.

 

आंटी को हिंदी,अंग्रेजी बिलकुल नहीं आती थी और तमिल भाषा मेरे लिए अजनबी थी. पाषाणयुग की तरह हम कभी कभी इशारों में ही बाते कर लिया करते. पर ज्यादातर अकेलापन ही उनका साथी था..कभी कभी उन्हें पास की बिल्डिंग की तमिल औरतों से बतियाते देखती पर ज्यादातर वो कभी गार्डन में तो कभी सीढियों पे अकेली बैठी ही दिखतीं.

 

आठ नौ साल पहले उन्होंने अपने बेटे की शादी की थी. पुत्रवधू,मुंबई की ही थी.हंसमुख चेहरा था. जब भी मिलती दो बातें कर लेती और मैं भी उसे झट चाय की दावत दे डालती. एक दिन मेरे बहुत जोर देने पर वो आई तो, पर 5 मिनट बाद ही चली गयी. पर एक दिन उसके सास ससुर बाहर गए तो वह मेरे घर आई और जो कुछ भी कहा,सुन कर विश्वास नहीं हुआ. पता चला.उससे कोई बात नहीं करता,उसे घर का काम भी नहीं करने देते,किचेन में नहीं जाने देते. फ़ोन छूने की भी इजाज़त नहीं. .अपनी माँ,बहनों को फ़ोन करना हो तो उसे पी.सी.ओ.जाना पड़ता है. मुझे दूसरे पक्ष की बात तो नहीं मालूम थी फिर भी उसकी बाते सच लगीं क्यूंकि एक बार मेरा मोबाइल और चाभी घर के अन्दर ही रह गए थे और गलती से दरवाजा बंद हो गया तो मैंने आंटी से एक फ़ोन करने की इजाज़त मांगी. फ़ोन उनके बेडरूम के कोने में रखी एक आलमारी के ऊपर रखा था.मुझे कुछ अजीब लगा,पर मैंने ध्यान नहीं दिया अब पता चला,बहू से फ़ोन दूर रखने के लिए यह व्यवस्था थी. मैं उसे दिलासा देती रही. उसने यह भी बताया, जब मेरे यहाँ वह 5 मिनट के लिए आई थी तो जाने के बाद दोनों जन पूछते रहें...क्या क्या बात हुई? लिहाज़ा मैंने भी उसे टोकना छोड़ दिया,कि मेरी वजह से वह कोई परेशानी में न पड़ जाए.

 

करीब छह महीने बाद उनका बेटा शिप पर से आया तो मुझे लगा,चलो अब उसके दिन बदले. पर एक घटना देख मुझे हंसी भी आई और उनके बेटे पर तरस भी आया. मैं बाहर से आ रही थी ,देखा उनके बेटे ने वाचमैंन को कुछ नए पेकेट्स थमाए.और मुझे देख जल्दी से चला गया. वाचमैंन इतने 'ज्यूसी गॉसिप' का मौका कैसे जाने देता. बिना पूछे ही बोल पड़ा--"लगता है अपनी वाईफ के लिए कुछ लाये हैं .बोले हैं रात में 11-12 बजे लेकर जायेंगे,हमेशा ऐसे ही करते हैं." मैं 'हम्म ' कहती हुई जल्दी से आगे बढ़ गयी,अगर जरा भी इंटेरेस्ट दिखाया तो रोज ही मुझे रोक कर पता नहीं किसके किसके किस्से सुनाया करेगा.

 

काफी दिनों तक वह नहीं दिखी फिर एक बार उसका फ़ोन आया कि वे लोग उसे उसकी बहन के पास छोड़ गए हैं. उसके पिता नहीं हैं,माँ भी बहन के पास ही रहती थी,.उसे बहन पर बोझ बनना अच्छा नहीं लगता....इत्यादि ,वह माँ भी बनने वाली थी. मैं बधाई और दिलासा देने के सिवा और क्या कर सकती थी सो वही किया. कुछ दिनों बाद वह यहाँ आई तो एक नन्ही परी गोद में थी. आंटी की तो सारी दुनिया ही बदल गयी लगती थी. फ्लैट का दरवाजा हमेशा खुला रहता. कभी वे बच्ची की मालिश करती दिखतीं . कभी खाना खिलाते दिखतीं तो कभी लोरी गातीं मिलती. मुझे भी यह देख,बड़ा अच्छा लगा चलो अब सब ठीक हो गया है.

 

पर एक दिन जब वह नीचे अकेले में मिली तो फिर से रोने लगी कि बच्ची को तो बहुत प्यार करती हैं पर उसके साथ वैसा ही पहलेवाला व्यवहार है. इस बार जब बेटा घर आया तो उसे कुछ फैसले लेने पड़े और शिप पर जाने से पहले वो दुसरे टाउनशिप में एक फ्लैट ले पत्नी और बच्ची को वहां छोड़ आया. पिछले सात सालों में छः महीने में बेटा जब भी शिप पर से आता. माँ बाप से अक्सर मिलने तो जरूर आता,घर के बहुत सारे काम भी निपटाता पर रुकता वहीँ था जो स्वाभाविक भी था. इस दौरान एक और नन्ही परी उनके बेटे के घर तो आई पर इनलोगों का घर सूना ही रहा.

 

जब भी आंटी को अकेले देखती, मन में यही आता अगर दोनों पोतियाँ उनके साथ होतीं तो उनका जीवन कितना अलग और खुशमय होता. और आज जब आंटी इस दुनिया से विदा ले चुकी हैं तो अंकल की देखरेख के लिए बहू को दोनों बेटियों के साथ यहीं शिफ्ट होना पड़ा. दिन भर दोनों बच्चियों की शरारतों,खिलखिलाहटों, धमाचौकडी की आवाजें आती रहती हैं. अंकल के चेहरे पर भी हमेशा एक खिली मुस्कान होती और कभी वे बड़ी तो कभी छोटी का हाथ पकडे उनकी किसी न किसी शरारत का जिक्र करते रहते हैं. मुझे भी अपने सामने का फ्लैट यूँ गुलज़ार देख बहुत अच्छा लगता है पर फिर एक टीस सी उठती है 'काश आंटी भी ये सब देख पातीं' यह लिखते हुए ग्लानि सी हो रही है पर विधि की ये कैसी विडम्बना है कि किसी के जाने के बाद तो घर सूना हो जाता है और यहाँ.....

 

अभी दो दिन पहले देखा, कबाडी वाला आया हुआ है और बोरे में सामान भर भर कर ले जा रहा है. मुझे देखते ही अंकल ने कहा--'इतने बरसों से वाईफ ने संभाल कर रखा था पर इनका इस्तेमाल भी नहीं होता और अब घर में जगह भी नहीं है.बेटे के फ्लैट का भी सारा सामान एडजस्ट करना है.अब घर में ३ टी.वी.है ,दो फ्रीज है, इतनी सारी आलमारी है ,कहाँ रखूं?..इसीलिए निकाल रहा हूँ".....

मन सोचने लगा, पुरानी बेजान चीज़ों को तो हम इतनी जतन से संभाल कर रखते हैं अगर इस से आधी मेहनत भी रिश्ते सहेजने में लगाएं तो ज़िन्दगी का सफ़र कितना आसन और ख़ूबसूरत हो जाए"

- rashmi ravija


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