उनकी आँखों से आँसूओं का सैलाब थमने का नाम ही नही ले रहा था।मै उनको रोकना भी नही चाहती थी------- आज उनके दर्द को बह जाने देना चाहती थी। ., मैने तो एक दर्द के लिये भी सैंकडों आँसू बहाये हैं, पर इस कर्मनिष्ठ इन्सान ने सैंकडों दर्द सह कर भी कभी एक आँसू नही बहाया-----दर्द का एक एक टुकडा परत दर परत दिल मे दबाते रहे---पर आज एक टुकडा नही पूरा दिल ही जैसे पिघल कर बाहर आने को था--- और जब तक दर्द बाहर न आये उसकी टीस सालती रहती है। इनका दर्द उन अपनो के कारण था जिन के सर पर इन्होंने अपने वज़ूद का आस्मां ताने रखा-- जिस घर की मिट्टी से लेकर इन्सानो तक को इन्होंने प्यार और कुर्बानी के तकाज़ों से संवारा था। अपने अरमान, अपनी ज़िन्दगी के सुनहरी पल ,जवानी के सपने सब उन्हें सौंप दिये थे। आज उन्हीं भाईयों ने इन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया था। जिन भाईयों पर अपना सब कुछ लुटाया उन्हीं ने इन्हें लूट लिया था। जमीन के एक टुकडे के लिये कोई इतना खुद गर्ज़ हो सकता है सोचा नही था। हमे घर जमीन मे से हिस्सा देना उन्हें गवारा नही था। <br>
मैने उनकी जिम्मेदारिओं को कभी दिल से और कभी मजबूरी मे बाँटा था दिल से इसलिये कि परिवार के लिये हमारा जो फर्ज होता है उसे करना ही चाहिये। मजबूरी मे इस लिये कि कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हे करने से अगर अपने सभी सपने जल कर खाक हो जायें और वो काम फिर भी करना पडे तो वो मजबूरी मे होता है। जब हम घर के ्रिश्तों मे संतुलन नही रख पाते तो ये स्थिती आ ही जाती है। आखिर मैं भी इन्सान ही थी।<br>
मगर आज अपनी जिम्मेदारी दिल से निभाना चाहती थी उन्हें रुला कर ------क्यों कि मैं जानती थी इन आँसों के साथ बहुत कुछ बह जायेगा--- टीस कुछ कम हो जायेगी-----। आँसू कहीं थम न जायें---- मैने बात शुरू की<br>
"अपको याद है अपनी ज़िन्दगी मे पहली तीन रातें ही अपनी थी। उसके बाद जो तूफान आये उसी मे सब कुछ बह गया।और जो बचा वो आपके भाई साहिब के पाँच बच्चे--- जो हमारे साथ बन्ध गये--- कोई कैसे सोच सकता है कि नई दुलहन के साथ तीन तीन बच्चे सोयें और दूसरे दो साथ ही दूसरी चारपाई पर ? और उन तीन दिन के बाद ही मेरे सपने जो न जाने कितनी कुवाँरी रातों ने हसरत से संजोये थे,टूट गये। उस दिन मैं भी ऐसे ही रोयी थी,--- आपके और बच्चों के सो जाने के बाद खिडकी मे खडी हो कर चाँद को देखती---- अपने सपने ढूँढती मगर न उनको आना था और न आये---।" और दोनो की आँखें निरन्तर बरस रही थीं।<br>
शादी के तीन दिन बाद् ये टूर पर चले गये फिर इनके एग्ज़ाम थे और मैं मायके चली गयी थी। अभी मै दोबारा ससुराल आने ही वाली थी कि अचानक मेरी जेठानी की मौत हो गयी। और उसकी चिता के साथ ही जल गये मेरे सारे सपने। उनके पाँच बच्चे थे। घर मे सास ससुर जेठ जी और एक देवर-- सब इकठे रहते थे। माँ जी अस्थमा की मरीज थी। घर का सारा बोझ एक दम मेरे ऊपर आ गया। जिस लडकी ने मायके मे कभी रसोई मे कदम नही रखा था उसके लिये ये कितनी बडी परिक्षा थी? मायके मे भाभियाँ बहुत अच्छी थीं हमे अपने बच्चों की तरह प्यार करती थी-- काम को हाथ नही लगाने देती। बस शादी से पहले थोडा बहुत सीखा था। <br>
जेठ जी ने जीते जी कभी पत्नि की परवाह नही की--- उसे मारते पीटते भी थे और वो इसी गम मे पागल हो गयी। लेकिन उसके मरने के बाद उसके गम मे डूबे रहते या शायद उसका गम नही बच्चों को पालने की चिन्ता थी मगर राम सरीखा भाई हो तो क्या मुश्किल है? घर के बाहर के बाकी सब कामों की जिम्मेदारी इन्होंने अपने कन्धों पर ले ली। घर मे एक मुर्गीखाना जिस मे 100 से अधिक मुर्गियाँ थीं अपना इन्कुबेटर था घर मे दो भैंसें एक गाय भी थी कोई सोच सकता है कि कितना काम होता होगा। फिर साथ मे नौकरी भी करनी ।जब कि माँजी अस्थमा के कारण अधिक काम नहीं कर पाती थी।<br>
एक 20-22 वर्ष की दुबली पतली लडकी माँ बाप की राजकुमारी, शाही ज़िन्दगी से निकल कर एक छोटे से गाँव के अस्तव्यस्त घर मे जीने की कल्पना भी नही कर सकती। उस समय तो पिता जी ने सिर्फ लडके की नौकरी ,उनका भविष्य और जमीन जायदाद देख कर रिश्ता किया था मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था।<br>
मुझे आज भी याद है वो रात जब मुझे डोली से निकाल कर एक कमरे मे बिठाया गया। उस कमरे के एक कोने मे बाण की चारपाई पडी हुयी थी-- जिसमे से बाण की रस्सियाँ टूट टूट कर लटक रही थीं----- देखते ही मुझे लगा जैसे ये साँप लटक रहे हैं जो मुझे डस जायेंगे --- ज़िन्दगी भर उनका भय मेरे मानस पट पर छाया रहा। दूसरे कोने मे एक चक्की पडी हुयी थी--- मुझे आभास हो गया कि मेरी ज़िन्दगी इस चक्की के दोनो पाटों मे पिसने वाली है------। उस चक्की के पास चप्पलों के चार पाँच जोडे पडे थे उन्हें इतनी बेरहमी से रोंदा गया था कि उनमे छेद हो गये थे---- और ऐसे ही छेद मेरे दिल मे भी हो गये थे ----। कुछ दृ्ष्य पहले ही ज़िन्दगी का आईना बन जाते हैं----- मेरा भी यही ह्श्र होने वाला था। सब ने इन जूतों की तरह मेरे दिल मे छेद किये,खुशियों को डसा, और मेरे अधिकारों और कर्तव्यों के बीच ज़िन्दगी पिस कर रह गयी। भाई साहिब को दूसरी शादी इस लिये नही करने दी ताकि इन बच्चों का भविष्य सौतेली माँ के हाथों खराब न हो। मुझे ही सौतेली बना दिया।--- क्या पाँच बच्चों का बोझ एक 22--23 साल की कुंवारी लडकी उठा सकेगी ? ये क्यों नही सोचा? <br>
खयालों को झटका लगा---,शायद इनके आँसू थमने लगे थे--- शायद उन्हें मेरे अन्दर चल रहे चलचित्र का आभास हो गया था फिर भी मर्द अपने उपर इल्जाम कब लेता है अपनी सफाई के लिये कुछ शब्द ढूँढ रहे थे---- मगर आज मुझे कोई सफाई नही चाहिये थी मै सिर्फ उन्हें रुलाना चाहती थी--- इसलिये नही कि मैं उनसे बदला लेना चाहती थी बल्कि इसलिये कि दोबारा रोने के लिये आँसू न बचें और उनका दर्द , नामोशी, पश्ताताप सब कुछ बह जाये।---<br>
"अपको याद है आप और आपके घर वाले अपना बच्चा ही नही चाहते थे---- और माँ जी भी कहती ये बच्चे भी तो अब आपके ही हैं---- पालने वाले भी तो माँ बाप ही होते हैं अगर चाहो तो यशोदा जैसा प्यार मिल सकता है--- मगर एक औरत के अन्दर की माँ को किसी ने नही देखा। जब गलती से प्रेगनेंसी हुयी तो आप बच्चा गिराने पर जोर देने लगे।अपका तर्क था कि जिस माह बच्चे का जन्म होगा उस माह इन बच्चों के पेपर होंगे--- घर कौन सम्भालेगा? माँ जी बीमार रहती हैं?<br>
और आपने अपने परिवार के प्रति निषठा निभाने के लिये मेरे ममत्व का खून करवा दिया---- दूसरों के बच्चों की खातिर मेरे बच्चे की बलि???????? ओह! आप इतने कठोर हो सकते हैं? मै विश्वास नही कर पाई मगर सच मेरे सामने था और उस दिन के बाद मैं पत्थर बन गयी। औरत सब कुछ सह सकती है मगर किसी की खातिर अपने बच्चे की बलि -- ये नही सह सकती और उस दिन से मैं पत्थर बन गयी। माँ बाप के संस्कार थे। सब कुछ सहन करने की शिक्षा मिली थी---- उनको लाज लगवाना नही चाहती थी मगर उस दिन के बाद ज़िन्दगी को एक लाश की तरह ढोया--- उस दिन के बाद मेरा दिल आपके लिये नही धडका----- बस अन्दर ही अन्दर जीने के लिये साँस लेता रहा---- नारी और क्या कर सकती है? समाज मे रहने के लिये उसे अपनी इच्छाओं का बलिदान देना ही पडता है। लेकिन आज कोई आपका भतीजा भतीजी किसी का एक ही बच्चा पाल कर दिखा दे तो समझूँगी कि मैने कोई बडा काम नहीं किया।" मैं बोले जा रही थी----<br>
मुझे नही याद कि कभी हम एक दूसरे से कभी दिल की कोई बात भी कर पाये कभी इकठे एक जगह अकेले मे बैठ पाये । सिवा इसके कि आप अपना पति का हक नही भूले---- मगर फर्ज जरूर भूल गये थे। आपके साथ लिपटे बच्चों को सोये देख कर न जाने कितने खून के आँसू पीती रही हूँ --- कई बार मन करता आप और मैं सिर्फ दोनों हो मगर कहाँ---- " बच्चों को आपसे लिपटे देख कर टीस उठती--- गुस्सा आता मगर बेबस थी आपसे कुछ कहती भी तो किस समय? मेरे लिये तो आपके पास वक्त ही नही था।<br>
" फिर तीन साल बाद अपनी बेटी हुयी। शायद उसकी भी बलि दे दी जाती मगर मैने बताया बहुत देर से। नौकरी और घर परिवार के कामौ मे मेरे लिये उसे पालना मुश्किल हो गया। मै उसके साथ ये जिम्मेदारी नही निभा सकती थी इस लिये उसे मायके मे छोड दिया। किसी ने भी तीन साल मे उसकी सुध नही ली । छुट्टी वाले दिन उसे साईकिल की टोकरी मे आगे बिठा कर गाँव ले आती मगर आपने कभी उसे गोद मे उठा कर नही देखा होगा।हैरान हूँ कभी किसी ने उसके लिये एक खिलौना तक ला कर नही दिया। बस हफ्ते मे एक दिन मेरा उसके लिये नसीब होता था। कौन माँ अपने बच्चों को छोड कर दूसरों के बच्चे पालती है?अपको खेतों से नौकरी से मुर्गीखाने से और उन बच्चों की पढाई से समय मिलता तो कभी देखते कि मैं कैसे तिल तिल कर मर रही हूँ, बेमौत,--- मै भी अपने अधिकार चाहती थी। मानती हूँ कि हमे संयुक्त परिवार मे बहुत कुछ दूसरों के लिये करना पडता है--- अपने सुख छोडने पडते हैं मगर उनकी भी कोई तो हद होती होगी? लेकिन मेरे लिये कोई नही जिस हद तक मुझे सहन करना पडा उसे शायद ही कोई कर पाये।<br>
आज मै जब उन दिनो के बारे मे सोचती हूँ तो सिहर जाती हूँ। बिमार हूँ या ठीक काम करना ही होता था--- इतनी दुबली पतली लडकी पर कभी किसी ने रहम नही किया। सुबह चार बजे उठना पूरे परिवार का नाश्ता और दोपहर का खाना भी बना कर रखना पडता था । मेरे पडोसी मेरे बरतनों की खनखनाहट सुन कर जान जाते कि चार बज गये हैं। साईकिल चला कर नौकरी पर जाना। दोपहर को वहाँ से बच्चे को देखने जाना और फिर शाम को ड्यूटी के बाद साईकिल चला कर गाँव आना। दिन भर के बर्तन माँजने फिर रात के खाने के लिये जुट जाना। 11 बजे तक काम निपटा कर थकान से बुरा हाल होता, लेकिन इस बात की किसे परवाह थी। बदन दुखा तो अपने आप दर्द की गोली खा कर सो जाना। " <br>
"ये तो बहुत बडी बडी बातें थी हमे तो एक छोटी सी खुशी भी नसीब नही होती थी। याद है रिश्तेदारी मे एक शादी पर जब मुझे भी सब के साथ जाने का सौभाग्य प्राप्त हुया था।
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