अडिग शीला

 "हर्षिका मेरी बच्ची "

कहते हुए अम्मा ने नज़र उतारकर ठ़डा पानी देने का रश्म निभाई हर्षिका और अम्मा दोनों की आंखे बस एक दूजे को निहार रहे थे ससुराल से कदम फेरी में आई हर्षिका ने नज़र दौड़ाई नाते रिश्तेदार  कोई नहीं था और ना थी कोई चहलपहल भाई भी नौकरी पे चला गया था आखिर छुट्टी भी तो कम मिला  महीने भर पहले आ गया फिर शादी की ढेरों तैयारी सोचते हुए हर्षिका अम्मा को देखने लगीं अम्मा थोड़ी बहुत कमज़ोर लग रही थी लेकिन संतुष्ट थी उसके चेहरे की चिंता चमक में बदल गया था

"हर्षिका जमाई जी को छत के कमरे में बैठाकर चाय नाश्ते करो बेटा "

अम्मा ने कहते हुये पानी का बोतल रखने लगीं तो हर्षिका ने कहा

"अम्मा अब मुझे अपने घर में मेहमान नवाज़ी करना पड़ेगा"

"अरे नहीं बेटा देख तेरे हाथों में कितनी प्यारी मेहदी रची है"

कहते हुये अम्मा ने बात को बदल दिया और बेटी दामाद को चाय नाश्ता देने लगीं

हर्षिका अम्मा को देखतीं जा रहीं थी कि महज तीन महीने में ही अम्मा मे कितने बदलाव आ चुके थे अम्मा अकेले ही घर संभाल लिया

हर्षिका ने अपने पति को देखकर थोड़ी सी फीकी मुस्कान भरी तो बदले में मदन जी ने कहा

"हर्षिका अम्मा के पास जाकर बोलों 'दामाद हूँ कोई भगवान् नहीं' जो अम्मा परेशान हो रही है"

पति की बात सुनते ही हर्षिका मदन के बांहों में लिपट कर डबडबाई आखों से नीचे के ओर मुड़ गई.

चार कमरे और एक बड़ा सा आंगन से बना हुआ घर जिसके छत पे पिता जी ने कभी खुद के लिए एक बड़ा सा कमरा बनाया था कमरे से बाहर एक बड़ा सा झुला जिसपे बैठकर शाम को अम्मा पिता जी के साथ चाय पीती थी अक्सर आंगन में छोटे बड़े पौधों जिसपे आने वाले फुल अक्सर मुहल्ले के लोग तोड़ने आतें सुबह शाम और  चहलकदमी बनीं रहतीं

पिता जी ने अपने पंसद से शादी किये थे अत: बाबा के गाँव कम ही जाना होता लेकिन जब भी गयें बाबा दादी के तानो की कटाक्ष ही मिला फिर अम्मा ने जाना ही छोड़ दिया पिता जी जो कमाते वही पर्याप्त था दोनों भाई बहन के लिए लेकिन पिता जी को अचानक मलेरिया बुखार चढ़ गया फिर धीरे धीरे कमज़ोर होतें होतें अम्मा पे जिम्मेदारी छोड़ चले गए पिता जी के मृत्यु होने पे गाँव से बाबा- दादी और भी संगे संबधी आये लेकिन अंतिम संस्कार के बाद बिना कुछ बोले चले गए एक बार भी नहीं अम्मा से बोले 'चलों गाँव चलते हैं' फिर उसके बाद अम्मा ने भी पत्थर रख लिया और नीचे के कमरे किराये पे दे दिया और खुद सिलाई मशीन पे बैठ गई वक़्त बदला भाई को नौकरी मिला और मेरी शादी सोचते सोचते हर्षिका अम्मा के पास निचे आ गई आंगन के एक कोने में एक छोटा सा कमरा भाई ने नया बनाया था ताकि अम्मा अकेले ना पड़े और किरायेदारों के बीच में परिवार बनकर रह सकें छोटे -बड़े पौधे अनेक फूलों से लदे अम्मा को देखकर हंसते खेलते थे

"हर्षिका कुछ चाहिए"

"हूहहहह अपनी अम्मा के गोद में थोड़ा सा जगह"

कहते हुयें अम्मा के गोद में लेट गई और बोलीं

"अम्मा क्या तुझे पिता जी की कमी नहीं खला"

"आज इतनें दिनों बाद यह सवाल क्यों"

"मेरे पति मुझे छोड़ कर नहीं रह सकते महज़ तीन महीनों के साथ में,

फिर तुम कैसे रह गई अम्मा"

"तुम दोनों के लिए"

कहते हुये अम्मा ने ढेरों सवाल का एक ही जवाब सरल शब्दों में दे दिया

हर्षिका अम्मा को देखकर आंखे बंद कर सोचतीं रहीं सच में पिता की बाद एक माँ ही होती है जो जिदंगी के धूप छाँव और धूल से खुद को बचाते हुए अपने बच्चों का पालन पोषण कर सकतीं है वरना एक जवान बेवा स्त्री को कोई नाते रिश्तेदार शरण देना तो दूर बातें भी नहीं करते सोचते हुए हर्षिका अम्मा के गोद में रो पड़ी लेकिन अम्मा आज भी अडिग शीला बनकर बेटी के मस्तक सहला रहीं थी

अभिलाषा श्रीवास्तव

गोरखपुर


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ