छुटकी

 "सुमन!.जल्दी से खाना बना दो बहुत जोरों की भूख लगी है।"

अभी-अभी दफ्तर से घर लौटी सुमन को देखते ही हॉल में लगे सोफे पर लेटे उसके पति रंजीत ने लगभग दो वर्ष की बिटिया के साथ कार्टून चैनल देखते हुए मनुहार किया।

दफ्तर का बैग वहीं टेबल पर रख अपने कमरे में जाकर झटपट कपड़े बदल वॉशरूम की ओर जाती सुमन को अपने कमरे के बिस्तर पर बैठी उसकी सासू मांँ ने वहीं से टोका..

"वॉशरूम में दो-चार कपड़े पड़े होंगे उन्हें धो लेना।"

"जी माँजी!"

सुमन वॉशरूम में पहुंँच फ्रेश होने से पहले बाल्टी भर भिंगोकर रखें कपड़े धो हाथ पोंछ वॉशरूम से बाहर आ सीधा रसोई में पहुंची। रसोई की सिंक जूठे बर्तनों से भरा पड़ा था।

असल में लाख मिन्नतों के बावजूद सासू मांँ अपने बेटे के बेरोजगारी का हवाला दे कोई घरेलू सहायिका रखने को तैयार नहीं थी।

खैर सारे जूठे बर्तन धोने के बाद सुमन ने चूल्हे पर चाय के लिए पानी रखा ही था कि सासू मांँ रसोई में आ पहुंची..

"बहू!.महंँगाई में आटा क्यों गिला करती हो?.चाय रहने दो!" सुमन ने चूल्हे की आंँच बुझा दी लेकिन रसोई में कुछ मदद करने की जगह सासू मांँ यह कहते हुए रसोई से वापस जाने को मुड़ गई की..

"तरी वाली सब्जी बना लो!.और फुलके बना कर जल्दी से खाना परोस दो।"

अपनी बच्ची की अच्छी परवरिश के मोह में मौन रहकर घर बाहर दोनों संभालती सुमन खुद को पल-पल कटते उस पेड़ की तरह महसूस करने लगी जिसकी लकड़ी की कीमत लोग उसकी छांँव से कहीं ज्यादा लगाते हैं।

रसोई में रोटियां बेलती सुमन ने आज अपने घरवालों से इस विषय में बात करने की ठान ली।

लेकिन बात शुरू करें तो कैसे!..यह सोचते हुए सुमन को  एक तरकीब सूझी।

एक सहकारी बैंक में क्लर्क सुमन ने अपनी सास और पति को खाना परोसने के बाद अपनी बच्ची छुटकी को गोद में उठा अपने पति की ओर देखा..

"आज हेड ऑफिस से ट्रांसफर लेटर आया है!.मेरा तबादला सतारा हो गया है।"

"सातारा!.यहां से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर!"

उसके पति के हाथ का कौर हाथ में और मुंह का निवाला मुंह में ही रह गया।

"हांँ!.लेकिन घबराने की कोई बात नहीं है मेरी दीदी वहीं रहती है!.मैं वहां उनके साथ ही रह लूंगी।"

सुमन ने अपने पति को निश्चिंत करना चाहा।

"लेकिन छुटकी तुम्हारे बिना कैसे रहेगी?" उसके पति ने चिंता जताई।

"मैं छुटकी को अपने साथ लेती जाऊंगी!.वहां मेरी दीदी इसका पूरा ख्याल रखेगी।"

"लेकिन बहू!.तुम्हारे बिना इस घर को कौन संभालेगा?" सुमन की सास भोजन की थाली एक ओर रखकर चिंतित हो उठी।

"माँ जी!.मुझे प्रमोशन भी तो मिल रहा है।.यहां घर के काम के लिए एक सहायक रख लीजिएगा।"

"लेकिन कब तक बहू?"

"यही कोई दो-तीन साल तक!.फिर मेरा वहां से ट्रांसफर हो जाएगा।"

"लेकिन तीन साल के बाद ट्रांसफर यहीं होगा यह जरूरी तो नहीं!" सुमन की सास की चिंता जस की तस बनी रही।

"हांँ!.यह बात तो है मांँजी,.लेकिन हमारे घर में पैसों की जरूरत है।"

एक गिलास पानी भी खुद को उठाकर न पीने वाले सुमन के पति को तो सुमन की बात सुनकर मानो जैसे काठ मार गया था लेकिन सुमन की सास ने बहू से मनुहार किया..

"बहू!.कुछ दिनों में रंजीत को भी कहीं ना कहीं नौकरी मिल ही जाएगी,.तुम ट्रांसफर मत लो।"

"लेकिन माँजी!.मुझसे घर-बाहर दोनों का मिलाकर इतना काम नहीं हो पाता!.मैं थक जाती हूंँ।"

सुमन असल मुद्दे पर आई लेकिन सास ने आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया..

"मैं हूंँ ना बहू!.घर के हर काम में मैं तुम्हारी मदद कर दिया करूंगी।"

"नहीं माँ जी!.आप से नहीं हो पाएगा।"

"कैसी बातें कर रही हो बहू?.तुम्हारे आने से पहले मैं ही तो पूरा घर संभालती थी।"

सुमन की सास ने अपने बेटे की ओर देखा और सुमन के पति ने भी अपनी मांँ की हांँ में हांँ मिलाया..

"मांँ सही कह रही है सुमन!.और मैं भी तो फिलहाल घर पर ही रहता हूंँ,.मैं भी मदद कर दिया करूंगा।"

सास और पति की बातें सुन और उनकी ज़िद देखकर सुमन ने राहत की सांस ली..

"फिर तो ठीक है!.मैं अपना ट्रांसफर रुकवाने के लिए कल ही आवेदन दे दूंगी।"

अपनी सूझबूझ की बदौलत सुमन को असल मायने में अब वह घर अपना घर लगने लगा।

पुष्पा कुमारी "पुष्प"

पुणे (महाराष्ट्र)


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