जब मेरी शादी तय हुयी तो मुझे इस बात की चिंता थी की मेरे होने वाले पति मेरी बातें समझेंगे या नहीं। पहले से न जान है न पहचान। मुझे उनसे कहना था कि शादी के बाद मुझे कम से कम एक महीने हर साल मायके आने दें वरना शादी ना करें। बहुत कोशिश की पर अपनी बात उनतक पंहुचा ना पायी और शादी हो गयी।जैसे ही उनसे अकेले मिलने का पहला मौका मिला मैंने अपनी शर्त बदल कर रक्खी कि अगर मुझे हमेशा खुश देखना चाहते हैं तो मेरी एक शर्त है ,शर्त बताते ही मुस्करा के बोले एक क्या तुम दो महीने मायके रहना पर शर्त मेरी भी है कि मेरी अम्माँ हमेशा हमारे साथ रहेंगी और बाकी बचे दस महीने तुम उनको खुश रक्खोगी। हम दोनों ने बहुत आसानी से एक दूसरे की शर्त मान ली और दिल से मानी। अम्मा मुझे प्यार करतीं पर गलतियों पर बड़बड़ातीं और मम्मी को चार बातें सुनाये बिना किस्सा ख़त्म ना होने देतीं । मैंने अपने व्यवहार से उनका दिल भी जीता और विश्वास भी। हमारे बीच लड़ाई हुयी पर कटुता कभी नहीं आयी। मेरे मायके जाने का कार्यक्रम हर साल होता रहा। तैयारी में समय लगता पंद्रह दिन पहले से सूटकेस लगने लगते उत्साह छलकाती तारीखों का हिसाब कैलेंडर पे होता होता काउंट डाउन शुरू हो जाता । जब स्टेशन के लिए निकलती तो मुझे लगता जैसे पंख लग गए हैं या मैं किसी परीकथा की नायिका हूँ। ट्रेन का सफर खिड़की के लिए बच्चों की लड़ाई सुलझाते कटता। आलू पूड़ी अचार खाते और सुराही का पानी ख़तम होते होते हमारा शहर आ जाता। पापा या जीजाजी स्टेशन पर मिलते देखते ही दिल में खुशी की घंटी बजने लगती और जब घर पहुंचकर मम्मी मिलतीं तो हम सब एक साथ उनसे ऐसे चिपटते कि उनके गिरने की नौबत बन जाती। भाभी दीदी और सबके बच्चे आने के बाद तो सोने पे सुहागा खुशियां कई गुना हो जातीं।
मायके आकर मुझे खाना बनाने सामान ख़त्म होने या किसी भी तरह की जिम्मेदारी से पूरी मुक्ति मिल जाती। बच्चे नानी से फरमाइशें करते ,घूमने जाते या नसीहतें सुनते मुझे कुछ भी लेना देना नहीं होता। नानी का फ्रिज कितना अच्छा है खूब आइसक्रीम देता है मुझे बताते और हम खूब हँसते। कभी चाट का प्रोग्राम बनता तो कभी चिड़िआघर का कभी मंदिर जाते तो कभी किसी रिश्तेदार के घर जमघट होता समय ऐसे निकलता कि पता ही नहीं चलता।
इस बार भी मैं हर साल की तरह माँ के घर आयी। बच्चे बड़े हो गए थे अपना अपना काम था साथ नहीं आये। महीने भर रहने के बाद जाने का दिन नजदीक आने लगा। साड़ी की दुकान से चटक साड़ियां और मैचिंग चूड़ी बिंदी सब कार्यक्रम पूरे हो रहे थे बच्चों के उपहार फल मिठाई सब जमा हो रहे थे । देखते देखते जाने वाला दिन आ पंहुचा। ठीक एक दिन पहले शाम को महराजिन से कहकर मम्मी ने एक किलो छोटे वाले करेले मंगवाए कि ट्रेन के खाने के लिए भरवां करेले बन जाएंगे मुझे बहुत पसंद है मायके में सबको पता था। दुसरे दिन शाम को मुझे जाना था महराजिन को जाने वाले दिन सुबह बुलाया गया माँ की निगरानी में उन्ही के हाथों करेले बन रहे थे पूरा घर खुशबू से सराबोर था पर हमें खाने नहीं मिले एक स्टील के कटोरदान में भरकर सारे फ्रिज में रख दिए गए मेरे ट्रेन के खाने के लिए और बचे हुए बाद में खाने के लिए। उसके बाद ही हमारा लंच हुआ शाम होते होते सारा सामान नीचे उतारा गया। सूप में हल्दी चावल लेकर मम्मी कोइचा डालने खड़ी हुईं तो बरसती आँखों से थोड़े से चावल अपनी पीली साड़ी के आँचल के किनारे में बांध मैं विदा के लिए चल दी। कार दीदी चला रही थीं हमारे साथ हरी काका भी थे स्टेशन घर से दूर था। अचानक फ़ोन बजने लगा मम्मी थीं करेले का कटोरदान फ्रिज में ही रह गया घबराई सी हड़बड़ाई सी बोल रही थीं वापिस आकर ले लो ऐसा कह रही थीं। दीदी गाड़ी मोड़ने के लिए नहीं मानी ट्रेन छूट जाएगी उन्हें डर था। मम्मी सुनने को तैयार ना थीं घर के गेट पे खड़ी कटोरदान लिए फ़ोन कर रही थीं मैंने हरी काका को कार से उतारा करेले लाने तो बेचारे कहने लगे बहनी रास्ते में सब्जी खरीद लेना करेला ही तो है। अब क्या समझाती उनको करेला तो है पर मम्मी के हाथ का बना है पांच सौ का नोट देकर हाथ जोड़ कर उन्हें मनाया। स्टेशन पहुंचे तो ट्रेन आ गयी थी सामान चढ़ाया मन पागल जैसा हरी काका का इंतज़ार कर रहा था बिना बोले मेरी आँखें खिड़की से लगातार बाहर देख रही थीं। दीदी भी अनमनी सी थीं सीटी बजी और उधर से दौड़ते हरी काका दिखे। खिड़की से जब उन्होंने कटोरदान मुझे दिया तो ऐसा लगा जैसे कपिलदेव को विश्वकप मिला हो दीदी और काका खुशी से ताली बजा रहे थे ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही थी और मैं गोद में डिब्बा रक्खे मुस्करा रही थी।
चार पांच घंटे गुजरे भूख लग आयी थी आस पास सभी ने खाना शुरू कर दिया था मैंने भी पूड़ी अचार और मम्मी वाले करेले निकाले खाने लगी पता नहीं चला कब और कहाँ से दीवाने पागल आंसुओं की दो बूंदे पूड़ी पर गिरीं मुझे रोता देख सामने बैठा लड़का हमदर्दी से कहने लगा आंटी आपको करेले नहीं पसंद तो मेरी मम्मी ने आलू की सब्जी रक्खी है खा लो आप रो रो कर करेले ,मत खाओ कोई जबरदस्ती नहीं है । मुझे हंसी आ गयी जोर से कहा मुझे पसंद है सारे लोग हमको देख रहे थे मैंने आंसू पोंछे सबको करेला दास्तान और उससे लिपटी मम्मी की भावनाओं का वर्णन किया तो
सभी भावुक हो गए सबने मेरी आप बीती ध्यान से सुनी। कटोरदान सबके हाथों से गुजरता मेरे पास आया हम सबने मिलकर खाया और पूरा कम्पार्टमेंट परिवार बन गया। अपनेपन की लहर दौड़ गयी। खुशी खुशी यात्रा समाप्त हुयी स्टेशन पर बच्चे अम्माँ और पति लेने आये थे पर मुझे नहीं मालूम था की ये विदाई माँ के जीवित रहते मायके से मेरी आखिरी विदाई है। आने के तीन महीने भी ना बीत पाए कि भाई का फ़ोन आया मम्मी चली गयीं। मेरी पीड़ा दुःख दर्द और बेचैनी का छोर नहीं था जो हो गया दिल उसे मानना नहीं चाहता था। रोज़ शाम माँ के नंबर पे फ़ोन लगाती घंटी बजती किसी अनहोनी का इंतज़ार करती कोई जादू कोई चमत्कार होगा माँ की आवाज़ आएगी पर ऐसा नहीं हुआ। साल भर मेरा विक्षप्त मन तड़पता रहा और धीरे धीरे मान लिया कि माँ नहीं हैं। माँ के साथ ही मेरा मायका खतम हो गया , उस शहर से नाता टूट गया पर समय के साथ जीवन आगे चला। एक दिन मुझे माँ की बहुत याद आ रही थी बचपन से परिचित मसालों से करेले बनाये घर में मायके सी खुशबू आने लगी मम्मी वाला वही स्वाद … शीशा देखा कुछ कुछ माँ जैसी लग भी रही थी आँख भर आयी समझ आ गया अब मम्मी हमेशा मुझमे है मेरे साथ हैं मेरे पास हैं मैं खुश थी संतुष्ट थी । आप भी अपनी माँ से मिलने जरूर जाइये दुनिया के किसी भी छोर पे हों नदी नाले पहाड़ या सागर पार कीजिये समय निकालिये , अपने घर और ससुराल की जिम्मेदारियों को पूरा करके अपनी माँ से मिलिए ठहाके लगाइये उत्सव मनाइये बाद में एल्बम और वीडियो सब बेकार है झूठ है...और हाँ अगर ट्रेन में कोई महिला बहुत प्यार से करेले खाती मिले तो नाम जरूर पूछ लेना शायद मैं ही मिल जाऊं आपसे …फिर हम साथ साथ खाएंगे महकते चहकते खुशनुमा भरवां करेले ।
अंतिमा त्रिवेदी
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