ये कैसी श्रद्धा?

 मैं हर रोज़ की ही तरह सुबह सुबह अपने आंगन में पौधों को पानी दे रही थी। तभी घर के सामने  टैक्सी रुकी और हमारी पड़ोसन सुहानी बच्चों और पति समेत गाड़ी से उतरी। मुझ पर नज़र पड़ी तो खुशी से झूमते हुए मेरे पास आ गई। खुश हो भी क्यों ना , नवरात्री में पति और बच्चों समेत मां वैष्णो देवी के दर्शन कर वापस लौटी थी। मैंने पूछा " और सुहानी कैसे रहे मां वैष्णो के दर्शन?

" अरे भाभी बडे़ अच्छे से दर्शन हुए। मैं तो वैसे भी देवी मां की परम् भक्त हूं। मन प्रसन्न हो गया मां के दर्शन कर।"

वो चहकते हुए बोली।

तभी उसका बेटा अपने घर से दौड़ते हुए आया।

" मम्मी मम्मी जल्दी चलो दादी बहुत बीमार है।" बिस्तर से उठ भी नहीं पा रही। शायद तभी दादाजी बार बार हमे फोन कर रहे थे। पर आपने हम सबको फ़ोन उठाने से मना कर दिया ताकि ट्रिप का मजा किरकिरा न हो जाए।

"अरे रहने दे बुढ़िया को बिस्तर पर पड़े हुए। हर दूसरे दिन के नाटक हैं उसके। काम से बचने के बहाने हैं बस। तू चल मैं आंटी से ज़रा बतिया के आती हूं।"

अपने बेटे को वापस भेज वो फिर मुझसे मुखातिब हुई।

"उफ्फ भाभी तंग आ गई हूं इन बुड्ढे   बुढ़िया से, खैर छोड़िए इनके तो आए दिन के नाटक हैं।

आपको पता हैं,  मैंने पूरे ग्यारह हज़ार रूपए चढ़ाए माता के दरबार में। बस माता अपनी कृपा बनाए रखे। अच्छा चलो भाभी मै चलती हूं। सफ़र की थकान है। 4 ..5 घंटा आराम कर के ही दूर होगी। बाय फिर मिलती हूं। "

हाथ हिलते हुए वो अपने घर को चल दी।

मै उसे जाते हुए देखती रही और सोच में पड़ गई। घर के बुजुर्गों को यूं तिरस्कृत कर लोग सोच भी कैसे सकते है कि देवी मां उन पर प्रसन्न होंगी? देवी मां की लीला देवी मां ही जाने।🙏

स्वरचित

(काल्पनिक)

ऋचा उनियाल बोंठीयाल


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