सुबह सुबह की चाय की तलब हमें बिस्तर से उतरते ही सीधा किचन तक ले आती है। जब तक हम सुबह की चाय न पी लें हमारी आंखे किसी नशे में धुत्त व्यक्ति की तरह, आधी ही खुलती हैं। आज भी हमनें आदतन, उठते साथ ही.. अपनी आधी खुली आंखों को मलते हुए,
किचन में प्रवेश किया पर अपनी मॉड्यूलर किचेन की यथावत जगह पर एक भी चाय का पतीला ना पाकर हम बुरी तरह झल्ला गए।
"उफ्फ हो सारे चाय के पतीले तो धोने रखे हैं । ये शीला (हमारी हाउस हेल्पर)भी ना, तीन दिन से पता नहीं कहां लापता है । ऊपर से फ़ोन भी स्विच ऑफ कर के बैठी है " दांत पीसते हुए हम बड़बड़ा रहे थे।
खैर एक भी चाय का पतीला धुला न होने के कारण, उनींदी आंखो से ही हमने एक नज़र किचन की सिंक की ओर दौड़ाई। वहां खड़ा बर्तनों का पहाड़ हमें मुंह चिढ़ा रहा था। घर में 4–5 चाय के पतीले तो हैं पर उनमें से एक को भी उन जूठे बरतनों के ढेर में से ढूंढ निकालना हमें ,खतरों के खिलाड़ी प्रोग्राम में दिए गए टास्क सा ,यानी कि,जोखिम भरा प्रतीत हुआ । हमारे आलस की पराकाष्ठा का अनुमान तो आप सभी ने तीन दिन के बर्तनों के ढेर से लगा ही लिया होगा। खैर हमने दूसरी जगह टटोला कि कोई तो बर्तन मिल जाए जिसमे हम सुबह की चाय बना ले। लेकिन वहां से सभी बर्तन नदारद थे। सिवाए एक कूकर के। हमने भी हार ना मानी और कुकर को पतीला समझ कर उसी में चाय बना डाली (ऑफकोर्स कूकर का ढक्कन लगाए बिना )।
अब चूंकि सभी चाय के कप भी धुलने रखे थे तो हमने एक कटोरी में ही चाय छान ली। अब आप इसे हमारे आलस की चरम सीमा कहिए या हमारी इगो, लेकिन बर्तन वाली बाई के होते हुए एक कप धोना भी हमें नागवार गुज़रा।
"आज तो शीला आ ही जाएगी", जैसे पॉजिटिव थॉट के साथ, बालकनी में आकर हम चाय की चुस्कियां भरने लगे।"
तभी हमारा फ़ोन घनघनाया। फ़ोन पे ‘शीला’, नाम फ्लैश होता देख हमारा कलेजा मुंह को आ गया। जब भी शीला फ़ोन करती है उसका मतलब है आज की छुट्टी। खैर कांपते हाथों से किसी तरह हमनें फ़ोन उठाया। फ़ोन की दूसरी तरफ़ से बोल रहे व्यक्ति के शब्द मेरे कान में गरम मोम की तरह टपके।
"मैडम जी हम शीला के हसबैंड
बोल रहे हैं। वो बात ई है कि शीला का एक्सीडेंट हो गया था। ऊ तो ऊपरवाले ने बचा लिया मैडम, थोड़ी बहुत चोटें आई हैं। लेकिन हाथ मा फराकचर हुआ है। हाथ में प्लास्टर बंधा है, तो अब शीला पंद्रह–बीस दिन बाद ही काम पर आ पाएगी।"
ये सुनते ही हमारा ,थोड़ी देर पहले पी हुई चाय से तर हुआ कंठ, फिर से सूख गया। शीला का पति हमारी तरफ़ से दो बोल सांत्वना की उम्मीद लिए थोड़ी देर मौन रहा। पर हमारी तो बोलती बंद थी। ऐसा नहीं है कि हमें उससे सहानुभूति नहीं थी ,हम सांत्वना भी प्रकट करना चाहते थे पर हमारे मुंह से एक शब्द न फूटा।
फूटी तो बस हमारी रुलाई। कुछ देर फोन पर शान्ति पसरी रही।
हमसे सांतवना के दो बोल की उम्मीद, शीला के हसबेंड ने भी त्याग दी,और फोन काट दिया।शायद वो भी हमारी मनःस्थिति समझ गया था।
बस अब हम और क्या कहें? जा रहें हैं दोस्तों, अपने बरतनों के पहाड़ से कुश्ती लड़ने।
स्वरचित
ऋचा उनियाल बोनठियाल।
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