दीपावली के बाद-

 दीवाली की छुट्टियाँ समाप्त हो रही थीं। जाने वाले अपने अपने सामान एकत्र करके अपने बैग सजाने लगे थे। ऐसे में नीम के पेड़ के नीचे पड़ी चारपाई में बैठा राम गाँव के कुछ लोगों के साथ समसामयिक देशज चर्चा कर रहा था तभी उसकी चार वर्षीया भतीजी श्यामा समीप आकर सिर झुकाने को कहा। ऐसा करने पर श्यामा ने राम के कान में कहा - डैडी! पापा और ताऊ जी घर में झगड़ रहे हैं।

राम ने आँखों ही आँखों में सच्चाई जाननी चाही तो उसने बड़ी मासूमियत से स्वीकृति में अपना सिर ऊपर नीचे कर दिया।

राम ने उपस्थित लोगों से कहा- आप लोग बैठिये, मैं घर से होकर आता हूँ।

अंदर बैठक में बड़े सोफे में मृत्युंजय और शलभ के बीच अम्मा बैठी हुई थीं। जबकि बच्चे सामने के छोटे सोफों पर बैठे थे। राम के अंदर पहुँचते ही बच्चे उठ खड़े हुए और दीवान पर जाकर बैठ गए।

सामने बैठते हुए राम ने शलभ की तरफ दृष्टि डालते हुए पूछा - श्यामा कह रही थी कि तुम और मृत्युंजय झगड़ रहे थे।

तब तक हँसती हुई श्यामा राम की गोद मे आकर बैठ चुकी थी।

शलभ ने कहा - बड़े भइया! देखिए छोटा जानकर मृत्युंजय भइया हर बार धौंस जमा लेते हैं।

अब राम ने मृत्युंजय की तरफ देखते हुए कहा - मृत्युंजय! यह क्या सुन रहा हूँ मैं.. तुम बउवा को धमकाते रहते हो।

मृत्युंजय - अरे! नहीं भइया, यह आपके सामने ऐसे ही बोल रहा है। ऐसा कुछ भी नहीं है।

शलभ - बड़े भइया! जब भी त्योहारों में हम मिलते हैं तब कभी मृत्युंजय भइया तो कभी धनन्जय भइया मुझे समझा बुझा कर बेवकूफ बना जाते हैं।

राम - क्या मामला है? खुलकर बताओ मृत्युंजय! बाहर कई लोग बैठे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं।

मृत्यंजय - भइया, यह तो बउवा की परेशानी है इसलिए वही बोले तो अच्छा रहेगा।

राम शलभ की तरफ देखता इससे पहले ही शलभ उठकर राम के सामने फर्श पर बैठते हुए बोला - बड़े भइया! मैं पिछले तीन सालों से अम्मा को कुछ दिनों के लिए अपने साथ लखनऊ में रखना चाहता हूँ। छोटा हूँ तो क्या मुझे अम्मा की सेवा का अवसर नहीं मिलना चाहिए? कभी धनन्जय भइया अपने साथ लालकुवाँ ले जाते हैं तो कभी वहीं से मृत्युंजय भइया हल्द्वानी ले जाते हैं। और गर्मियों में अम्मा को गाँव अच्छा लगता है तो आप लिवा लाते हैं। मेरे लिए अम्मा की सेवा करने को कोई महीना खाली ही नहीं रहता।

मृत्युंजय - भइया, आपको याद होगा अम्मा को पूरे चौदह महीने अपने पास रखा था बउवा ने जब वह कोचीन में पोस्टेड था।

शलभ - बड़े भइया! देखिए, इसी एक बात को लेकर धनंजय भइया और मृत्युंजय भइया हर बार अम्मा को अपने साथ लिवा ले जाते हैं। इस बार धनन्जय भइया नहीं आये तो मुझे लगा कि मेरा नम्बर आ गया पर ...

राम ने अम्मा की तरफ देखा जो हौले हौले मुस्कुरा रही थीं। तब रामने कहा - बउवा! तुम्हारी बात ठीक है पर मैं ललिता से बात करके सन्तुष्ट होना चाहूँगा।

यह सुनकर शलभ ने राम की गोद में बैठी श्यामा से कहा - श्यामा! आप अंदर जाइये और मम्मी को बुला लाइये।

हल्का सा घूँघट डाले ललिता ने बैठक में आकर राम और मृत्युंजय को प्रणाम किया। राम ने आशीर्वाद देते हुए कहा - बउवा अम्मा को लखनऊ ले जाने की ज़िद कर रहा है। यदि श्यामा की, घर की और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करते हुए क्या तुम अम्मा की देखभाल का अतिरिक्त जिम्मा उठा सकने में समर्थ हो? यदि हाँ तो अम्मा को अपने साथ ले जा सकती हो किन्तु यदि अभी यह सम्भव न हो तो कुछ दिनों के बाद बउवा लिवा लाएगा हल्द्वानी से।

ललिता - बड़े भइया! हम तो कब से अम्मा को साथ  रखना चाह रहे हैं पर हर बार हम मायूस हो कर लौट जाते हैं। यदि शालू दीदी को असुविधा न हो तो इसबार अम्मा हमारे साथ चली चलें।

मृत्युंजय (दीवान पर बैठे अपने दोनों बेटों से) - ऐ कौटिल्य और कौस्तुभ! जाओ भागकर मम्मा को बुला लाओ।

शालू ने भी माथे तक घूँघट डाल कर बैठक में प्रवेश किया और राम को अभिवादन किया। राम ने आशीर्वचन कहे और आगे पूछा - बउवा और ललिता दोनों इसबार अम्मा को अपने साथ लखनऊ ले जाना चाह रहे हैं। तुम्हारी क्या राय है?

शालू ने एक दृष्टि मृत्युंजय की तरफ देखा और फिर कहा - बड़े भइया, इसका निर्णय आप ही करें तो अच्छा रहेगा।

अब जब राम उठकर मृत्युंजय के बगल में बैठी अम्मा के पास जाकर बैठ गया मृत्युंजय उठ कर खड़ा हो गया।

राम ने अम्मा से कहा - अम्मा! आप बड़ी देर से इस नाटक की नायिका बनी हुई हैं। अब आप ही बताएँ कि आप कहाँ जाना चाह रही हैं- हल्द्वानी, लालकुवाँ, लखनऊ या फिर यहीं गाँव में।'जय' हो!

अम्मा - बड़े बबुआ! हमें तो सबके पास रहना अच्छा लगता है। सभी बेटे और बहुएँ बहुत आदर सम्मान देने के साथ साथ मेरी सेहत का भी ध्यान रखते हैं। गाँव की डेहरी छोड़कर कहीं अन्यत्र जाना मुझे अच्छा नहीं लगता किन्तु नाती नातिनों का मोह मुझे ले जाता है। अच्छा होगा कि तुम अपने अधिकार का प्रयोग करो और मेरे बारे में तुम्हीं अंतिम निर्णय दो। मुझे खुशी होती है तुम्हारी बात मानने में।

इतना कह कर अम्मा ने राम के गालों को चूम लिया।

राम - बड़ी उलझन में डाल दिया आपने अम्मा मुझको। बउवा या मृत्युंजय में किसी एक की बुराई का भाजन बनना पड़ेगा मुझे।

मृत्युंजय व शलभ (सँयुक्त स्वर में) - बड़े भइया! ऐसा नहीं है। आपके शब्द हमारे लिए वेदवाक्य हैं। आपका निर्णय सर्वमान्य हैं।

राम - बउवा और ललिता! अम्मा को होली तक अपने साथ रखो। इसके बाद यहाँ गाँव आ जाएँगी। इसके बाद आगे अम्मा स्वयं विचार करेंगी। यदि बीचमें कभी अम्मा का मन बन जाये हल्द्वानी जाने या गाँव आने का तो पहुँचाने की व्यवस्था कर देना। ठीक है।

बैठक में उपस्थित सभी सदस्य (खुशीसे) - बहुत बढ़िया। ठीक है।

राम ने अम्मा के पैर छुए और उठकर बाहर नीम के नीचे आकर लोगों के बीच में बैठ गया।

जयसिंह भारद्वाज


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