संस्कारों का मान

  चटाक!!!!! थप्पड़ की आवाज़ से पूरा हॉल गूंज गया, मंडप में मंत्र पढ़ते हुए पंडित जी भी शांत हो गए। सभी आवाज़ वाली दिशा की ओर मुड़ गए, सबको अपनी तरफ देख विपुल गुस्से और शर्म से लाल हो चला था। उसने गुस्से में पहले नेहा की तरफ देखा फिर मंडप में बैठे अपने भाई अर्जन की ओर। आज अर्जन और स्नेहा की शादी थी।

 किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या हुआ, लेकिन हमेशा की तरह सब नेहा को ही दोष दे रहे थे। लड़के के माता पिता दौड़ते हुए विपुल के पास आए और नेहा पर बरस पड़े।

 "माँ देखो ना कबसे ये लड़की मेरे पीछे पड़ी थी, मैंने मना किया तो कहने लगी यहां तमाशा करेगी।"

 "तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मेरे बेटे को हाथ लगाने की, समझती क्या हो अपने आपको? दो कौड़ी की औकात नहीं और चली मेरे बेटे पर डोरे डालने, निर्लज्ज कहीं की।"

 किसी ने कहा - ऐसी लड़कियों को हम बहुत अच्छे से जानते हैं, बड़े घर का लड़का देखा नहीं कि पड़ गईं पीछे।

 इधर मामला गरम होते देख स्नेहा के घर वाले भी आ गए और नेहा पर अपना गुस्सा निकालने लगे।

 एक नौकर की बेटी हो कर इतना साहस कि स्नेहा के होने वाले देवर पर तूने हाथ उठाया? हमने तुझे सब कुछ दिया, सोचा कि नौकर की बेटी है तो क्या हुआ, है तो बच्ची ही। अच्छे स्कूल में पढ़ाया, पहनने को कपड़े दिए, यहां तक कि स्नेहा ने हमेशा तुझे छोटी बहन जैसा प्यार दिया और तू यहां उसके ससुराल वालों के सामने हमें नीचा दिखाने की कोशिश में है।

 नेहा कुछ कह पाती उसके पहले ही उसकी माँ ने आकर उसे एक ज़ोरदार तमाचा दे दिया। वो बेचारी बस एकटक अपनी माँ को देखती रही।

 "लेकिन माँ..."

 "चुप कर नेहा, हज़ार बार तुझे समझाया है कि औकात में रहा कर| लेकिन तू, हर बार मुझे शर्मिंदा करती है। चल यहाँ से, इसी वक्त निकल जा तू, मैं नहीं चाहती कि स्नेहा बेटी की शादी में अब कोई और तमाशा हो। मैं अपनी नेहा की तरफ से माफी मांगती हूँ साहब| गलती हो गई, लेकिन आप हमारी स्नेही बेबी से अपना मन खट्टा मत करिए, वो दिल की बहुत अच्छी हैं।"

 आंखों में आंसू लिए शांति नेहा को लेकर बाहर निकल गई। आउट हाउस में दोनों माँ बेटी गले लग कर रो रही थीं, नेहा ने शिकायती लहज़े में कहा- माँ तुम जानती हो मेरी कोई गलती नहीं है, वो स्नेहा दीदी का देवर पहले दिन से ही गंदी हरकतें कर रहा था और आज तो उसने हद ही कर दी थी| मेरे इतने पास खड़ा था कि मैं सांस भी नहीं ले पा रही थी, मुझसे रहा ना गया और उसे रोकने के लिए मेरा हाथ उस पर उठ गया।"

 "तो बताया क्यों नहीं जो सच था??"

 "स्नेहा बेबी!!!"

 दरवाज़े पर खड़ी स्नेहा को देख दोनों चौंक गए।

 शांति- आप यहां कैसे, आपकी तो शादी चल रही है आपको वहां होना चाहिए।

 स्नेहा- ज़रूर जाऊंगी, लेकिन अकेले नहीं आप दोनों को साथ लेकर।

 शांति- नहीं बेबी, देखिए अभी जो कुछ भी हुआ उसके बाद हमारा वहां जाना आपके घर वालों को पसंद नहीं आएगा।

 स्नेहा ने चुप चाप नेहा का हाथ थामा और शादी में पहुँच गई। नेहा और उसकी माँ को देख कर सबका मुंह बन गया, यहाँ तक कि अर्जन का भी। वो नेहा को लेकर विपुल के सामने पहुंची, विपुल गुस्से में नेहा को घूर रहा था।

 स्नेहा - विपुल तुम्हारी भाभी होने के नाते मैं तुम्हारी तरफ से कोई फैसला ले सकती हूँ ना?

 विपुल की सहमति मिलते ही स्नेहा ने विपुल और नेहा की शादी की घोषणा कर दी। सब आश्चर्यजनक रूप से उसे देखने लगे| सास ससुर, अर्जन, उसके माता पिता और खुद नेहा भी नहीं समझ पा रही थी कि स्नेहा ने ये क्या किया। विपुल ने गुस्से में झल्लाते हुए शादी से मना कर दिया| स्नेहा ने अब भी नेहा का हाथ थाम रखा था। ये सब देखते हुए अर्जन आया और उसने स्नेहा को समझाया कि ये सब बंद करे और मंडप पर चले।

 स्नेहा विपुल की ओर मुड़ी और कहने लगी-

 "क्या हुआ विपुल, तुम्हें नेहा पसंद नहीं आई? इतने दिनों से तुम उसके आगे पीछे घूमते थे, उसका हाथ पकड़ने की कोशिश करते थे, कभी उसको छूने के प्रयास में तुमने कितनी ही बार कि चोट खाई है, तो फिर अब क्या हुआ? क्या तुम्हें लगा कि नेहा कोई भोग की वस्तु है, जिसे तुम जब चाहो पा सकते हो?"

 अब बात सबके समझ में आ चुकी थी। मौके की नज़ाकत को देखते विपुल के माता पिता स्नेहा के माता पिता के पास आए और लगभग धमकाने वाले अंदाज़ में कहा-

 समधी जी, समझा लीजिए अपनी बेटी को, हमारे घर की बहू होते हुए वो इस तरह हमारी इज़्ज़त नहीं उछाल सकती। बच्चों से तो गलती हो ही जाती है, विपुल से भी हो गई| इसका अर्थ ये तो नहीं कि वो सबके सामने हमारी बेइज़्ज़ती करेगी, यही संस्कार दिए हैं आपने?

 "अभी वो आपकी बहू बनी नहीं है, आज भी वो हमारी ही बेटी है" - स्नेहा की माँ ने आगे बढ़कर कहा।

 "और संस्कारों की बात तो आप न ही करें तो ही अच्छा है| बच्चे हैं, तो सही गलत सिखाना माता पिता का कर्तव्य है, जिसमें आप चूक गए हैं। मेरी बेटी ने तो मेरे संस्कार निभाए हैं। स्नेहा बेटा मुझे तुझ पर गर्व है, विपुल का सच सबके सामने लाकर आज तूने ये साबित कर दिया कि मैंने तेरी परवरिश की है।"

 अपनी माँ का साथ पा स्नेहा का विश्वास और बढ़ चुका था, स्नेहा की माँ आगे बढ़ीं और नेहा और शांति से अपने किए की माफी मांगी। स्नेहा ने मांग की कि जब तक विपुल हाथ जोड़ कर अपने किए की माफी नहीं मांगेगा वो मंडप में नहीं बैठेगी।

 अर्जन भी जानता था कि स्नेहा गलत नहीं है, इसीलिए उसने भी उसी का साथ दिया। आखिर विपुल को अपने किए की माफी मांगनी पड़ी।

 आप ही सोचिए कि कब तक हम एक स्त्री होने का दंड भोगेंगे? क्या स्त्री होना अभिशाप है? किसी भी पुरुष को ये अधिकार कौन देता है कि वो स्त्री को उसकी मर्ज़ी के बिना हाथ लगा सके? अगर आज हम अपने लिए नहीं खड़े होंगे तो कब?


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