"बहू, क्या बना रही हो आज?? ,, रसोई में खड़ी अपनी बहू सुहानी से आशा जी ने पूछा।
" कुछ समझ में नहीं आ रहा माँ जी, रोज रोज यही सब्जियां खाते खाते तो हम सब उब गए हैं...। ,, असमंजस में पड़ी सुहानी बोली।
" चल तूं इधर आ , आज सब्जी मैं बनाती हूँ... । आज मैं बेसन की सब्जी बनाऊंगी । जतिन को तो बहुत पसंद थी मेरे हाथों की बनी बेसन की सब्जी ।,,
" बेसन की सब्जी!! हाँ हाँ मम्मी जी.. एक बार ये भी बोल रहे थे......लेकिन मेरे सामने तो आपने कभी बनाई नहीं !! ,, सुहानी बोली।
" अरे वो तो शादी से पहले तेरी ननदें काम नहीं करने देती थीं। फिर तूने आकर रसोई संभाल ली तो मेरी भी आदत छूट गई । चल आज बनाकर खिलाती हूँ ।,,
आशा जी आज पहले की तरह ही स्फूर्ति से अपने बेटे की मनपसंद बेसन की सब्जी बनाने में लग गईं। काफी साल हो गए थे रसोई में खाना बनाए तो हाथ थोड़ा कांप रहे थे लेकिन चेहरे पर अलग हीं उत्साह था।
कुछ देर में बनने वाली सब्जी को बनाने में आज लगभग एक घंटा लग गया। जतिन भी आफिस से घर आ चुका था और खाना लगाने की बोल कर हाथ मुंह धोने चला गया।
सुहानी ने फटाफट फुलके बनाकर बेसन की सब्जी के साथ थाली लगा दी । जतिन थाली देखते ही बोला अरे वाह!! बेसन की सब्जी!! पहला कौर तोड़कर मुंह में डाला हीं था कि उसका मुंह बिगड़ गया..... " ये क्या सब्जी बनाई है.. इतना नमक!! तुम्हें नहीं बनानी आती थी तो माँ से पूछ लेती ... माँ बहुत अच्छी सब्जी बनाती है । ,, जतिन बोला।
बगल में बैठी आशा जी भी बेटे की प्रतिक्रिया सुनने को बेताब थीं लेकिन जतिन की बात सुनकर उनका सारी बेताबी उदासी में बदल गई ।
तभी सुहानी बोली, " जी वो मैंने पहली बार बनाई थी ना तो अंदाजा नहीं आया... लेकिन अगली बार माँ जी से अच्छी तरह पूछकर बनाऊंगी या फिर माँ जी को बोल दूंगी कि वही बना दें । अभी मैं दिन की सब्जी गर्म करके ला देती हूँ । ,,
पास बैठी आशा जी के चेहरे पर बहु की बात सुनकर मुस्कान आ गई " कितनी पगली है ये बहू, साफ- साफ बोल देती माँ ने ही बनाई है ..... खराब बन गई तो अपना नाम लगा दिया ।,,
कुछ दिनों बाद सक्रांति का त्यौहार आने वाला था तो सुहानी के मायके से सभी के लिए उपहार और मिठाईयाँ आई थीं...
सुहानी के लिए हरे रंग की और आशा जी के लिए नीले रंग की साड़ी आई थी।
सुहानी को याद आया कि एक दिन आशा जी बोल रही थीं कि मुझे नीला रंग पसंद नहीं.. मैं नीला रंग कभी नहीं पहनती .. ये याद आते हीं सुहानी ने झट से अपनी हरी साड़ी से वो नीली साड़ी बदल ली..... और वो हरी साड़ी अपनी सास आशा जी को दे दी । आशा जी समझ गई थीं लेकिन सुहानी की भावना का मान रखने के उन्होंने कुछ नहीं कहा । हाँ त्यौहार पर सुहानी को देने के लिए चुपके से एक सुंदर सी साड़ी लाकर रख ली । हाँ मन ही मन बोल रही थीं " सच में पगली है ये बहू अपनी पसंद की साड़ी मुझे दे दी और खुद वो साड़ी ले ली....
सुहानी की तबियत आज कुछ ठीक नहीं थी इसलिए वो दवा लेकर आराम कर रही थी । आशा जी के पास उनकी बेटी स्मृति का फोन आया कि वो और उसके ससुराल वाले देवी माता के दर्शन के लिए उनके शहर आ रहे हैं तो कुछ देर के लिए घर पर भी आएंगे। ...दोपहर का खाना वहीं खाएंगे ... ये सुनकर आशा जी के हाथ पैर फूलने लगे... बहु तो बीमार है और मुझसे तो इतने जनों का खाना बनना बहुत मुश्किल है । कुछ सोचकर उन्होंने फोन लगाया थोड़ी देर में एक आदमी थैला भरकर सामान ले कर आ गया । उसे देखकर सुहानी ने पूछा, " माँ जी, ये क्या है?? ,,
" अरे बहू वो स्मृति के ससुराल वाले खाने पर आ रहे हैं। ये कुछ खाना मैंने पास के ढाबे से मंगवा लिया है.. बाकी हम दोनों मिलकर गर्म गर्म पूरियां तल लेंगे... ।,,
" लेकिन माँ जी, मैं बना देती ,, सुहानी सकुचाते हुए बोली
" हाँ तो, तूने ही तो बनाया है , वैसे भी इतना खराब खाना तो तूं ही बना सकती है। और सुन ये ढाबे वाली बात राज है..,, आशा जी ने शरारत से कहा तो सुहानी मुस्कुरा उठी ।
सब ने खाने की तारीफ की और साथ में सुहानी की भी।
स्मृति की सास बोली, " वाह बहन जी, आपकी बहू तो बहुत अच्छा खाना बनाती है । बिलकुल होटल के जैसा है।,,
आशा जी बोलीं, " हाँ बहन जी, तभी तो मैं भी खा खाकर फैलती जा रही हूँ ।,,
सभी हंसने लगे और दोनों सास बहू एक दूसरे को स्नेह से देख रही थीं....
सच में दोस्तों, परिवार में एक दूसरे की गलतियां निकालने की जगह उनकी खूबियों को देखें तो रिश्ते कितने सहज हो जाते हैं... एक दूसरे के साथ और सहयोग से ही एक परिवार खुशहाल बन सकता है....
सविता गोयल
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