स्वार्थी माँ

 आज माँ का तेरहवां है। आज के बाद सब खतम हो जाएगा। इस घर को मैं बेचना चाहता था। यही सोच रहा था कि तभी शीतल ने आवाज़ दी, "भैया यहां क्यों बैठे हो, चलो पंडित जी बुला रहे हैं।"

मैं नीचे आ गया। तेरहवीं की पूजा संपन्न हुई। सब लोग खाने पीने में लग गए, पर मुझे तो रज्जो मौसी से बात करनी थी। मैंने उनका हाथ पकड़ा और उनको लेकर अपने कमरे में आ गया। मैंने उनसे पूछा "मौसी, अभी पिछले महीने हम सब इकट्ठा हुए थे, खूब घूमे फिरे। खूब मस्ती की। तो अचानक ऐसा क्या हो गया कि माँ को हार्ट अटैक आ गया और वो नहीं रहीं।"

रज्जो मौसी ने कहा, "देख आकाश, मैं ज्यादा तो नहीं जानती। कुछ दिन पहले भी उनकी तबियत बिगड़ी थी तो मैंने साथ जाकर डॉक्टर से दिखाया था। उस दिन तेरी मांँ की तबीयत बहुत खराब हो गई थी,हम लोग के अस्पताल ले जाते ही उन्होंने दम तोड दिया। ज्यादा बातें भी नहीं हुईं हमारे बीच। फिर मौसी ने कुछ याद करते हुए कहा जब मैं रामू काका के फोन पर यहां आई थी तो उस समय एक सफेद लिफाफा तेरी मां ने रामू काका को दिया था और कहा था कि तुझे भेज दें।शायद उस लिफाफे में कुछ हो।"इतना बता कर मौसी चली गई।

माँ को गए आज 15 दिन हो गए। आज शीतल को भी अपने ससुराल जाना है। वो भी चली जाएगी तो मैं बिल्कुल अकेला हो जाऊंगा।

यही सोच कर मैंने भी दिल्ली जाकर अपना काम शुरू करने का सोचा।

दूसरे दिन हम दोनों भाई बहन और मेरी पत्नी एक साथ निकले, शीतल गुरुग्राम और हम दिल्ली। घर आकर सबसे पहले मैंने सारी चिट्ठियां देखनी शुरू कर दी।

देखते देखते एक सफेद लिफाफा मेरे हाथ आया जिसमें मेरा पता मेरी मांँ के हाथों से लिखा गया था। मैंने उसे चूम लिया और मेरी आंखो से आंसू निकल पड़े।

मैंने उस खत को पढ़ना शुरू किया।

"प्रिय बेटे आकाश,

तुम सोच रहे होगे कि ऐसी क्या बात है जो मैंने इस खत में लिखा है?

तो धीरज से पढ़ना।

मैं पुष्पा, बिल्कुल अपने नाम के अनुरूप, सुंदर, पुष्प सी महकती, खिलती अपने माँ पापा की दुलारी, अपने भाइयों की लाडली बहन। अपने जीवन में मस्त थी, तभी बड़े मामा जी के बेटे की शादी में जाना हुआ। वहां बहुत लोगों से मिलना जुलना भी हुआ। दस दिन रह कर हमलोग वापस रामपुर आ गए।

एक दिन तुम्हारे दादाजी के एक मित्र मेरे पापा से मिलने आए। बातों ही बातों में उन्होंने तुम्हारे पापा और मेरी शादी की बात कह दी। उन्होंने बताया कि "मैं उन लोगों को बहुत पसंद हूं। वे लोग बारात में आए थे और सबने मुझे मामा जी के घर देखा था, ये बात भी पता चली।"

तुम्हारा घराना बहुत बड़ा और नामी था। मेरे पापा और मेरे सारे घर वाले तो बहुत खुश हो गए कि इतने बड़े घर से मेरे लिए रिश्ता आया है। तुम्हारे दादा जी, रिटायर्ड अधिकारी थे और तुम्हारे पापा वन विभाग के एक बहुत बड़े अधिकारी।

मेरी और तुम्हारे पापा की शादी हो गई। तुम्हारे पापा अपने नाम के अनुसार सुदर्शन थे। जो भी उनको देखता, मंत्र मुग्ध हो जाता। बारात के आने के पश्चात सारी सहेलियां और सारे घर वाले मुझे छेड़ रहे थे। मैं भी गर्व से भर उठी।हमारी शादी हो गई और मैं विदा होकर तीन कमरे के घर से निकल कर बहुत बड़े कोठी की मालकिन बन गई।

लेकिन ये क्या, सुहागरात की रात जब मैं फूलों की सेज पर बैठी भावी जीवन की कल्पना कर रही थी, तभी सुदर्शन जी मेरे पास आए। उनके मुंह से शराब की दुर्गन्ध आ रही थी। मैं चुप तो थी ही, अब डर भी गई। उन्होंने कहा,"पुष्पा, मुझसे कोई ज्यादा आशा ना रखना। ये शादी मैंने मेरे माँ बाबूजी की मर्जी और खानदान को आगे बढ़ाने के लिए की है।

ये कहकर वो कमरे से निकल गए। अब मैं क्या करती? मेरे अरमानों पर पानी फिर गया। विदाई के समय मेरी माँ ने कहा था, "दुःख सुख आते जाते रहते हैं। अब वो ही तेरा घर और परिवार है। हमारी इज्जत बना कर रखना।"

इसलिए मै अब उस घर भी नहीं जा सकती थी।मैंने कपड़े बदले और सारे फूल हटा कर सोने की कोशिश करने लगी। जाने कब नींद आई मुझे।

सुबह कमला बाई ने दरवाज़ा खटखटाया तो मेरी नींद खुली। मैंने दरवाज़ा खोला तो सामने कमला बाई के साथ मेरी सासूमां खड़ी थीं। उनको देख कर मेरे मन में नफरत की आंधी आई, पर मैने तुरंत खुद को संभाला और उनके पैर छुए। उन्होंने कहा" बहू, चाय पी कर तैयार होकर नीचे आ जाओ।"

कमला बाई कमरे में आकर चाय बनाने लगी। कमरे का जायजा लेकर वो बिना कुछ बोले चली गई।

थोड़ी देर बाद मैं नीचे गई। मन तो किया कि चिल्ला चिल्ला कर उन लोगों से पूछूं कि मेरा क्या दोष? किस बात की सजा दी गई मुझे?

पर मेरे संस्कारों ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया। मैंने अकेले ही बाकी रस्मों को पूरा किया। किसी ने भी सुदर्शन जी की चर्चा नहीं की।दिन तो यूं ही बीत गए, रात को सुदर्शन जी घर आए। माँ जी ने उनसे कहा "कल बहू को मायके जाना है, पग फेरे के लिए।"

उन्होंने कुछ नहीं कहा और सीधा मेरे पास आए और मुझे कमरे में ले गए। अचानक उनकी आंखों से आंसू बहने लगे। मैं तो घबरा गई। मैंने पूछा 'क्या हुआ? आप क्यों रो रहे हैं?" तब उन्होंने कहा "पुष्पा, मैं कल रात की बात के लिए तुमसे माफी मांगना चाहता हूं। कल कुछ परेशान था इसलिए जाने क्या बोल दिया?"मैंने कहा "जाने दीजिए।" उन्होंने मुझे दूसरे कमरे में जाकर तैयार होने के लिए कहा।

मैं जब तक तैयार होकर आई, उस कमरे को दुल्हन की तरह सजा दिया गया था। मैं बहुत खुश हुई।

सुदर्शन जी और मैंने उस सजे कमरे में अपने भावी जीवन के सुनहरे सपने सजाए।

सुबह जब मैं उठी तो मेरे चेहरे पर बहुत चमक थी।सुदर्शन जी कमरे में नहीं थे। मैंने उन्हें पूरे घर में खोजा, पर वो नहीं मिले। मेरा मायके जाने का समय हो गया था, उनका कोई पता नहीं था। अंत में मैं अपने ससुर जी के साथ अपने मायके गई। वहां मेरी माँ और भाभी ने पूछा भी कि सुदर्शन जी क्यों नहीं आए? तो बाबूजी ने झूठ बोला "सुदर्शन को सरकारी काम से सुबह ही बाहर जाना पड़ा इसलिए वह नहीं आया।" सबने उनकी बात मान ली।

वहां कुछ देर रह के मैं उनके साथ ही वापस आ गई। रात को सुदर्शन जी नशे में चूर हो कर घर आए। जब मैंने उनसे सुबह घर में नहीं रहने का कारण पूछा तो उन्होंने मुझे एक थप्पड़ मार दिया। मैं रोते रोते सो गई। वो पहला थप्पड़, मेरे जीवन का काल बन गया। अब तो किसी समय भी मुझे मार पड़ती थी। मैं एक खिलौना बन कर रह गई थी, जिससे जब मन होता सुदर्शन जी खेल लेते और चले जाते। सास ससुर तो मूरत बन कर देखते रहते।सुदर्शन जी का जब मन होता घर आते। जो मर्जी होती वही करते।

मेरे मायके वाले और सब बाहर वाले यही जानते थे कि मैं बहुत खुश हूं और सुखी हूं।

इसी बीच मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूं।

मैंने सोचा कि शायद अब मेरे दिन सुधर जाएं। मैंने सुदर्शन जी को ये बात बताई। वो बहुत गुस्सा हुए और बच्चा गिराने के लिए मुझे डाक्टर के पास ले गए। मैंने अकेले में डॉक्टर के हाथ पैर जोड़े तो उसने सुदर्शन जी को बुलाया और कहा "इनकी हालत ऐसी नहीं कि कुछ किया जाए। इनकी जान जा सकती है।" जाने क्यों, सुदर्शन जी मुझे घर ले आए। इस तरह मैंने तुम्हारे जन्म की राह आसान कर दी।

तुम्हारे जन्म ने मेरे सुने जीवन को खुशियों से भर दिया। मैं सब दुःख भूल गई। इसी बीच मुझे पता चला कि उनका चक्कर उनके ऑफिस के एक क्लक के साथ चल रहा है। मैं इस बात को जान कर भी अनजान बनी रही और तुम्हारे पालन पोषण करने लगी। धीरे धीरे उन्होंने घर आना बिल्कुल ही बंद कर दिया। ये सब देखें कर बाबूजी ने बिस्तर पकड़ लिया। उनकी सेवा भी मैं करती। कमला बाई सासूमां की देखभाल करती।

एक दिन बाबूजी की हालत बहुत बिगड़ गई और उनके प्राण निकल गए। बहुत खबर करवाने के बाद सुदर्शन जी बाबूजी के दाह संस्कार के लिए आए।

मानवीय इच्छा के वशीभूत होकर मैंने उनके साथ कुछ अंतरंग क्षण बिताए। कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि मैं दोबारा गर्भवती हूं। इस बार तुम्हारे पापा को कुछ नहीं बताया। माँ जी जानकर बहुत खुश हुईं।

अब तो हम दोनों और कमला बाई ही थे उस घर में। बाबूजी की पेंशन से हमारा खर्च आराम से चल रहा था।तुम भी चार साल से हो गए थे। अब तुम्हें स्कूल में डालना था। अब घर के सारे फैसले मैं ही लेती थी

अब मैं चाहती भी नहीं थी कि तुम्हारे पापा घर आएं क्यों कि उनके अत्याचार से मैं तंग अा गई थी। तभी तुम्हारी बहन गौरी का जन्म हुआ। मैं और तुम्हारी दादी बहुत खुश थे।  तुम्हारे पापा को गौरी के जन्म का पता चला तो उन्होंने मुझे गालियां दीं और कहा कि ये बच्चा उनका नहीं। आज से उनका और मेरा रिश्ता खतम, ये कहकर तुम्हारे पापा कभी ना आने के लिए चले गए। मुझे उनके जाने का कोई गम नहीं था। मैंने उनके नाम के सारे सुहाग चिन्ह उतार कर फेंक दिए। तुम भी कुछ कुछ समझने लगे थे। तुम्हारा बाल मन मुझसे बहुत सारे सवाल करता और मैं धैर्य से उनका जवाब देकर तुम्हें संतुष्ट करती।

तुम भी अपनी बहन से बहुत प्यार करते थे और आज भी करते हो, मैं जानती हूं।

धीरे धीरे जीवन आगे बढ़ने लगा। तुम दोनों भाई बहन पढ़ाई में बहुत अच्छे निकले। अब पेंशन के पैसे कम पड़ने लगे तो मैंने घर में ही आस पास के बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। अच्छी आमदनी होने लगी थी। मैंने कभी अपने अतीत की परछाई तुम दोनों भाई बहन पर नहीं पड़ने दी।

आज भी मुझे वो दिन याद है जब तुमने मेडिकल की परीक्षा में जिले भर में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। मैंने और तुम्हारी दादी ने पूरे मोहल्ले में मिठाई बांटी थी।गौरी ने भी स्नातक कर लिया और सुरेश जी के साथ उसकी शादी हो गई। वो भी अपनी गृहस्थी में खुश है। तुम मेडिकल की पढ़ाई करने दिल्ली चले गए। आज फिर मैं और तुम्हारी दादी उस घर में अकेले रह गए। पढ़ाई पूरी होते ही तुमने वहां अपनी पसंद की लड़की से शादी कर ली। मन दुखित तो हुआ, फिर भी मैने मन को समझा लिया।

मेरी बहू कौन है, कैसी है? मैं कुछ नहीं जानती। तुम्हारी दादी अब अक्सर बीमार रहती थी। एक दिन अचानक वो भी मुझे अकेला छोड़ कर चली गईं। जब तुम दादी के क्रिया कर्म में आए तो मैंने अपनी बहू पूजा को देखा। मैंने सोचा हम दोनों सास बहू सहेलियां बन कर रहेंगी। एक दिन जब मैं उसे रसोई के काम समझा रही थी, तो थोड़ा प्यार से डांट दिया। शायद पूजा ने तुम्हें ये बात बताई और तुमने मुझे नाराजगी दिखाई। मैं फिर अकेली पड़ गई।

इस बार जब तुम आए तो तुमने मुझे, अपनी रज्जो मौसी और उनके बच्चों को खूब घुमाया फिराया और हमने खूब मस्ती की।

दिल्ली जाने से पहले तुमने मुझसे भी साथ चलने को कहा।

मैंने तुम्हें जवाब दिया कि "बेटा कभी कभी एक साथ रहना और हमेशा एक साथ रहने में बहुत फर्क है।तुम लोगों का अपना रहन सहन है। मेरा अपना तरीका है। बहुत सारी बातें हम लोगों को एक दूसरे की पसंद नहीं आएंगी, जो घर में कलह का कारण बनेंगी।" तब तुमने कहा "मांँ मुझे, दिल्ली में फ्लैट लेना है। आप वहां रहने चलतीं तो ये घर मैं बेच कर वहां फ्लैट ले लेता। वैसे भी ये घर बहुत पुराना हो गया है।" मैं इस बात पर बिल्कुल भी तैयार नहीं हुई।

तब तुमने कहा "माँ आप बहुत स्वार्थी हो। मेरे दिल्ली वाले मकान मालिक ने अपने बेटे के लिए अपना घर बेच कर उसे पैसा दे कर बिज़नेस करवा दिया।आप कुछ नहीं कर सकतीं।मैं कब तक किराए के घर में रहूं। तुमको मेरी कोई चिंता नहीं, तुम सिर्फ अपना सुख सोचती और जीती हो।"

दूसरे दिन तुम लोग चले गए। पर तुम्हारी कही हुई बात मेरे दिल में चुभ गई और मेरे सीने में दर्द होने लगा। मैंने रज्जो को बुलाया और उसको मकान के पेपर बनवाने को कहा। रज्जो ने ही मुझे अस्पताल में भरती किया। एक बार तो मैं अच्छी होकर घर आ गई, पर मैं अब जीना नहीं चाहती थी। बस ये खत लिखने और पेपर पर साइन करने के लिए मेरे प्राण बचे थे।

इस खत के साथ मकान के पेपर भी हैं। साइन किया हुआ है। अब मैं भी नहीं जो मन हो तुम करना।

सदा खुश रहो।

तुम्हारी स्वार्थी माँ।

पत्र पढ़कर मैं तो जड़वत हो गया। पूजा ने आकर मुझे झकझोर दिया, तब मैं जोर जोर से रोने लगा और माँ से माफी मांगने लगा।

-अभिलाषा"आभा"


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