रोज़ सासू मां की अपनी बेटे से सुबह-सुबह झड़प हो ही जाती थीं।श्रद्धा ने शुरू -शुरू में तो मां-बेटे के बीच कुछ कहना उचित नहीं समझा।कभी एक दिन तो कभी दो-तीन का मौन युद्ध चलता था उन दोनों के बीच।
आज राशन का सामान लाकर रखते ही सुमित सहेजने भी लगे डिब्बों में।इस काम में हांथ बंटाने का पुण्य सासू मां ही करती थीं।बेटे को पंद्रह दिन पहले से ही किश्तों में चेतावनी दी जाने लगती थी"अरे,बारिश के पहले चांवल,दाल और मसाले ज्यादा करके लाना होगा अब सुमित।आलू -प्यांज भी इकट्ठे लेते आना,फिर मंहगे हो जाएंगे।"सुमित भी ,जी मां कहते और सामान तुरंत लाते।ये उनकी बहुत अच्छी आदत थी।किसी काम को कल पर नहीं टालते थे।राशन का सामान मां-बेटे मिलकर समेट लिए बड़ी जल्दी।आदेश हुआ पति देव का"ज़रा कड़क चाय तो बना देना।नई वाली चायपत्ती लाया हूं इस बार।"श्रद्धा ने तुरंत चाय बनाकर दी दोनों को।ख़ुद भी चाय लेकर बैठी ही थी सासू मां के पास तो वह धीरे से फुसफुसाते हुए बोलीं"ये तेरा पति ना,कुछ ना कुछ भूल ही जाता है।मैं याद दिलाती हूं तो चिढ़ जाता है।"श्रद्धा ने उत्सुकता वश पूछ ही लिया"क्या भूल गए अबकी बार मां"?
"अरे कुछ मत पूछ,माचिस का पूड़ा(बड़ा वाला)नहीं लाया।चाय पी है ना तुमने भी,कैसी फीकी चाय पत्ती ले आया।ज्यादा डालनी पड़ती है तब रंग आता है।ख़ुद तो दिन भर में पांच -छह बार चाय पिएगा।जब ख़त्म हो जाएगी पत्ती तो बड़बड़ाएगा जबरदस्ती।"सासू मां वैसे तो फुसफुसाते हुए ही बोलीं,लेकिन उनके बेटे की श्रवणशक्ति बड़ी अच्छी थी।झट से बात उनके कान तक पहुंच गई।फिर क्या बोलना शुरू"नहीं पिऊंगा अब मैं चाय घर पर।बाहर पी लिया करूंगा।तुम सास बहू मिलकर ही पीना।मैं तो कुछ याद नहीं रख पाता ना।इतने बरसों से किराना,बाजार मैं ही ला रहा हूं।हर बार तुम्हें कमी दिख ही जाती है।"
बेटे का रौद्र रूप देखकर मां ने आत्मसमर्पण कर दिया,रोते हुए"अरे मां हूं रे,क्या इतना भी हक नहीं अब मेरा।छोटी सी बात पर भिन्नाने लगता है।"बेटा तो बाहर जा चुका था।बची बहू(श्रद्धा)।सासू मां के पास जाकर सांत्वना देते हुए बोली"आप क्यों अपना जी छोटा करती हैं।आपको तो पता है ना इनकी आदत।किसी को भी कहां छोड़ते हैं।करतें सब हैं सभी के लिए,पर ऐसा कुछ बोल देंगे कि मटियामेट हो जाता है।"
अरे बाप रे!सासू मां का पारा तो भयानक चढ़ गया,गुस्से से बोलीं"बहू ,आज कहा तो कहा,आगे से मेरे बेटे के बारे में ऐसा मत कहना।अरे हीरा है मेरा बेटा।पांच साल की उम्र से मेरे साथ जाकर सब खरीदना सीखा।सब्जी सूंघकर बता देगा ताजी है या बासी।रंग देखकर दाल,चांवल खरीदता है।सुना दिया बात तो सुना दिया
मैं भी तो बड़बड़ाए जा रही थी।मेरा बेटा घी का लड्डू है,टेढ़ा है जरा तो टेढ़ा ही भला।उसके गुणों की कोई कमी नहीं है। रोम-रोम में संस्कार और जिम्मेदारी रची बसी है,जैसे दाने-दाने में घी का स्वाद।तुम जाकर उसे और चाय दे आओ।ठंडा हो जाएगा गुस्सा उसका।"
श्रद्धा अवाक होकर उस मां को देख रही थी।चाय लेकर सुमित के पास गई,तो काफी गुस्से में बोले"नहीं चाहिए चाय मुझे।पूरी चायपत्ती की चाय तो मैं ही पी जाता हूं।अब से नहीं पिऊंगा।"अब पति के मन का दुख कम करना भी पत्नी का दायित्व ठहरा।हांथ पकड़ कर बोली श्रद्धा"सच कहते हैं आप,मां को ऐसा नहीं बोलना चाहिए।कमाकर वही लाता है,फिर भी चाय के लिए ताना।आप अब से किराना अपने हिसाब से लाया कीजिए,और रखने में भी उनकी मदद मत लिया करिए।मैं मदद कर दूंगी।"
सुमित ने गुस्से से श्रद्धा की तरफ देखा और कहा"यह बात अब बोली हो,फिर कभी आगे से ना कहना।मेरी मां इस परिवार की आधार हैं।पापा बैसाखी के सहारे थे ज़िंदगी भर।नकली पैर लगाकर सिर्फ नौकरी की उन्होंने।घर को,बच्चों को मेरी मां ने संभाला।जुबान में बस लगाम नहीं,वरना वह घी के जैसी पवित्र और सुगंधित है।थोड़ा ज्यादा बोल देती हैं,पर हमारी भलाई के लिए।मेरे पीछे ना पड़े तो मैं बाद में मंहगा सामान ही ले आऊंगा ना।मां और मैं हमेशा साथ में किराने का सामान रखते थे,और रहेंगे।इससे उनको भी बहुत सुख मिलता है।तुम हम दोनों के बीच में ना बोला करो श्रद्धा।"
श्रद्धा को सचमुच हंसी आ गई,मां-बेटे के इस अटूट बंधन को देखकर।सच में बेटा मां के लिए घी का लड्डू ही था,जो थोड़ा टेढ़ा भी भला।बेटे के लिए मां घी,ज़रा कठोर ही सही।
शुभ्रा बैनर्जी
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