पापा

 आज रविश अपने बेटे के साथ पटाखे जलाने में मशगूल था, अचानक पता नही कैसे एक चिंगारी निकली और रविश की हथेली में लग गयी। जलन हो रही थी, पर इतनी नही कि किसी को बताए। दो मिनट बाद देखा, पांच वर्षीय बेटा सदन ने उसे खींचकर सोफे में बिठाया और चिंतित आवाज़ में बोला, "हाथ फैलाइये, बरनोल लगा दूं।"

और रविश के हाथों में वो प्यारी सी उंगलियां बरनोल लगाने लगी, रविश भावातिरेक में खामोश हो चुका था, सिर्फ नजरें दूर कही एक पापा और बेटे की यादों में खो चुकी थी।

पंद्रह वर्ष की उम्र में एक दिन देखा, पापा चम्मच से खाना खा रहे थे तभी पूछ बैठा, "क्या हुआ पापा, रोज तो आप हाथ से खाते हो।"

"तुम नही समझोगे बेटा।"

"क्यों, बताओ न पापा।"

अब पापा ने अपनी हथेली फैला दी, रविश हाथ के छालों को देख चिल्ला पड़ा, "ये क्या हुआ।"

"कुछ परेशान होने की बात नही है बेटा, अगर थोड़े बहुत छालों और हाथ के कड़ेपन से कमाई अच्छे से हो जाती है,खर्चे और बचत सबकुछ बढ़िया चलता है, तो चिंतित होने की बात नही। कल तक ठीक हो जाएगा।"

रविश बचपन से देख रहा था, पापा आत्मविश्वासी थे, नौकरी करना नही चाहते थे, चाहे अपने व्यापार में कितने भी कष्ट उठाने पड़े। पोस्ट ग्रेजुएट थे, पर बॉस की बाते सहन नही कर सकते थे।

उन्होंने लिक्विड सोप घर के एक बंद कमरे में बनाना शुरू किया, और उनका व्यापार चल निकला, पूरे शहर के ड्राई क्लीनर्स उसी से कपड़े धुलते, बड़ी बड़ी फैक्ट्री में सोप जाता, पर हमलोगों का वहाँ प्रवेश निषेध था। पूरे परिवार के लिए हर त्योहार में नए कपड़े जरूर आते थे, पर उन्होंने अपना जीवन, एक पैंट शर्ट, पाजामे में गुजर लिया। वो अलग बात है, बाद में मैंने उनका बहुत ध्यान रखा।

उनके परिश्रम को देखकर मैं बड़ा हुआ था और उन्ही के संस्कारों और शिक्षा से आज सफल डॉक्टर हूँ।

कभी कभी यादे, छाले बनकर उभर आती हैं और आंखे नम हो जाती हैं। त्याग माता पिता दोनो का ही अतुलनीय होता है।

-भगवती सक्सेना गौड़


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