अब तो घर फिर से घर लग रहा है

 मालती देवी बरामदे में बैठी आटा गूंथ रही थीं। दोपहर की धूप दीवारों पर झूलती परछाइयों में ढल रही थी। अंदर से उनकी बहू, प्रिया, मोबाइल पर किसी से ऊँची आवाज़ में बात कर रही थी — "माँ, मैं तो बस कह रही हूँ, यहाँ कोई मेरी सुनता ही नहीं। सारा दिन काम करते-करते थक जाती हूँ, लेकिन सासू माँ को तो बस ताने देने का ही शौक है।"

मालती देवी ने सुन तो लिया, पर कुछ बोली नहीं। आँखें नम हो आईं, पर उन्होंने अपने हाथों की लकीरों में आटा दबा दिया — जैसे हर दुख वहीं सान दिया हो।

शाम को बेटा अमन दफ्तर से लौटा तो प्रिया ने उसे दरवाजे पर ही रोक लिया, "सुनो ना, मम्मी को समझाओ, मैं भी इंसान हूँ। घर के सारे काम अकेले नहीं हो सकते। सुबह से खाना, सफाई, बच्चों का होमवर्क... और ऊपर से मम्मी का मुँह देखो, बस नुक्ताचीनी करती रहती हैं।"

अमन ने थके स्वर में कहा, "अरे, मम्मी तो बस समझाती हैं, नाराज़ मत हुआ कर।"
"समझाती हैं या ताना देती हैं?" प्रिया तुनककर बोली, "अगर ऐसे ही चलता रहा तो मैं मायके चली जाऊँगी।"

मालती देवी ये सब सुन रही थीं। अमन उनके कमरे में आया तो वो धीरे से बोलीं,
"बेटा, तुम दोनों में झगड़ा मत करवाओ। मैं ही अब कुछ कहूँगी नहीं। अब उम्र भी तो हो चली है।"

अगले दिन उन्होंने खुद को काम से पीछे कर लिया। अब खाना प्रिया बनाती, बच्चे का टिफिन तैयार करती, और घर की सफाई भी खुद करती।
शुरुआती कुछ दिन उसे अच्छा लगा — किसी की रोक-टोक नहीं। पर धीरे-धीरे थकान और चिड़चिड़ापन हावी होने लगा।

मालती देवी अपने कमरे में रहतीं, खिड़की से बाहर का आकाश देखतीं। पास में पति की तस्वीर रखी थी — जिनके जाने के बाद यही घर उनका संसार बन गया था।

एक दिन मोहल्ले की शांति आंटी आईं। बोलीं,
"मालती, तुम बहुत चुप रहने लगी हो। पहले तो हर शाम हँसी-ठिठोली होती थी। अब क्या हुआ?"
मालती मुस्कुराईं, "बस उम्र हो गई है बहन। अब बोलने से भी मन थक जाता है।"

शांति आंटी ने भांप लिया कि कुछ गड़बड़ है, लेकिन उन्होंने ज़्यादा नहीं पूछा।

कुछ ही दिनों बाद अमन के दफ्तर से फोन आया — उसे ऑफिस टूर पर बाहर जाना था, करीब दस दिन के लिए। अमन ने प्रिया से कहा,
"माँ का ध्यान रखना। उनके लिए दवा वक्त पर दे देना।"
प्रिया ने हाँ में सिर हिला दिया, पर मन ही मन सोच रही थी — अब सारा बोझ मेरे सिर पर रहेगा।

अगले कुछ दिन तो ठीक गुज़रे, लेकिन फिर बच्चे को तेज बुखार हो गया। रातभर नींद नहीं आई। सुबह गैस सिलेंडर खत्म, और दूधवाला भी नहीं आया। घर की छोटी-छोटी जिम्मेदारियाँ पहाड़ सी लगने लगीं।

जब बच्चा सुबकते हुए बोला, "मम्मा, मुझे दादी चाहिए," तो प्रिया का गला भर आया। वो दौड़कर मालती देवी के कमरे में गई,
"मम्मी जी... माफ़ कीजिएगा, मैं थक गई हूँ। मुझे समझ नहीं आ रहा क्या करूँ।"

मालती ने बिना कुछ कहे बच्चे को गोद में उठा लिया। माथे पर हाथ रखा और बोलीं,
"कुछ नहीं हुआ मेरे लाल को, बस थोड़ी थकान है। दादी है ना।"

फिर वो रसोई में गईं। गैस चूल्हे में सिगड़ी लगाई, चाय बनाई, बच्चे के लिए सूप तैयार किया।
सारे घर में फिर वही खुशबू फैल गई — जो माँ के हाथों की पहचान होती है।

प्रिया दरवाजे से उन्हें देख रही थी। उसी क्षण उसे याद आया, कुछ महीने पहले जब उसके अपने मायके में उसकी भाभी ने सास से बहस की थी, तो उसने माँ से कहा था — "माँ, आप भी सासों की तरह ही होंगी न?"
तब उसकी माँ बोली थीं, "नहीं बेटा, सास नहीं... सास जैसी समझ रखने वाली माँ बनना।"

आज वो बात बिल्कुल साफ समझ में आ गई।

अगले दिन जब अमन का फोन आया तो उसने पहली बार कहा,
"आप चिंता मत करो, मम्मी और मैं साथ में हैं। सब ठीक है यहाँ।"

मालती देवी ने   मुस्कुराकर प्रिया से कहा,
"देखा बहू, रिश्ते की मिठास ज़्यादा बातों से नहीं, थोड़े से अपनापन से आती है। मैं भी तो कभी किसी की बहू थी। जो दर्द तेरा है, वही दर्द कभी मेरा भी था। बस फर्क इतना है कि मैंने उसे मन में दबा लिया था, तू बोल देती है — और ये भी ठीक है।"

प्रिया की आँखें भर आईं,
"मम्मी, मैं बहुत गलत थी। आपको समझने में देर कर दी।"

मालती ने उसके सिर पर हाथ रखा,
"समझ कभी देर से भी आए तो बुरा नहीं होता। बस, दिल साफ़ रहना चाहिए।"

अगले हफ्ते जब अमन लौटा, तो घर का माहौल बदला हुआ था। सुबह प्रिया रसोई में थी, और मालती देवी पूजा के थाल में दीपक सजा रही थीं।
अमन ने मुस्कुराकर कहा,
"अब तो घर फिर से घर लग रहा है।"

मालती ने मुस्कुराते हुए कहा,
"घर तब ही घर होता है बेटा, जब औरतें एक-दूसरे से लड़ने की जगह एक-दूसरे का सहारा बनें।"

प्रिया ने उनके पैरों को छूते हुए कहा,
"मम्मी, अब कभी आपको अकेला महसूस नहीं होने दूँगी।"

मालती देवी ने उसकी पीठ थपथपाई,
"और मैं भी तेरे साथ रहूँगी — सास बनकर नहीं, माँ बनकर।"

आँगन में तुलसी के पत्तों पर धूप उतर रही थी। बच्चे की खिलखिलाहट कमरे में गूँज रही थी।
घर में अब न सास थी, न बहू — बस दो औरतें थीं, जो एक-दूसरे का सहारा बन चुकी थीं।
और शायद यही किसी घर का असली शृंगार होता है।


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