शालिनी शाम की चाय बना रही थी। खिड़की से आती हल्की हवा में इलायची की महक घुल गई थी, लेकिन उसके चेहरे पर वैसी ताजगी नहीं थी जैसी आम दिनों में हुआ करती थी। सामने टेबल पर फोन रखा था, कई बार स्क्रीन जल उठी और बुझ गई। उसने एक गहरी साँस ली और बुदबुदाई —
“मैं ही हमेशा क्यों करती हूँ कॉल?”
पास ही बैठी उसकी सास, सावित्री देवी, अखबार मोड़ते हुए बोलीं, “क्या हुआ बहू, फिर किसी से नाराज़ हो गई क्या?”
शालिनी ने मुस्कुराने की कोशिश की, “नहीं अम्मा, नाराज़ नहीं, बस सोच रही थी कि हम ही हमेशा रिश्ते निभाने की कोशिश क्यों करते हैं? मम्मी को दो बार फोन किया, उठाया नहीं, सोचा अब मैं भी नहीं करूँगी।”
सावित्री देवी ने मुस्कुराकर कहा, “अरे बेटा, तू क्यों इतना हिसाब रखती है? रिश्ते तो दिल से निभाए जाते हैं, कैल्कुलेटर से नहीं।”
शालिनी ने कहा, “अम्मा, आप तो कहती हैं, लेकिन आजकल लोग सब चीज़ों का हिसाब रखते हैं। ‘हमने इतना किया, उन्होंने क्या किया’, ‘हम गए थे मिलने, वो नहीं आए’ — बस यही चलता रहता है।”
सावित्री देवी ने उसके कप में चाय डालते हुए कहा, “एक बात कहूँ, सुनेगी?”
“हाँ, अम्मा।”
“रिश्ते गणित नहीं हैं बेटा। उनमें जोड़-घटाव करने लगोगी तो प्यार कम हो जाएगा। हमारे ज़माने में तो लोग रिश्तों में हिसाब नहीं रखते थे, बस निभाते थे। कौन ज्यादा दे रहा है, कौन कम — ये सोचने का वक्त ही नहीं होता था।”
शालिनी थोड़ी देर चुप रही। उसे याद आया, पिछले महीने उसकी बचपन की सहेली नीलू की शादी की सालगिरह थी। उसने नीलू को मैसेज किया था, लेकिन जवाब नहीं आया। तभी से वह मन में बोझ लिए बैठी थी। “अब मैं पहले कभी मैसेज नहीं करूँगी,” उसने तय कर लिया था।
पर आज अम्मा की बातों ने उसके मन में हलचल मचा दी थी।
रात को शालिनी बिस्तर पर लेटी थी। मोबाइल उठाया तो देखा — नीलू का नाम अब भी उसके चैट लिस्ट में ऊपर था। वह कुछ पल देखती रही, फिर मुस्कुराई। क्या फर्क पड़ता है अगर मैं ही पहले मैसेज कर दूँ?
उसने लिखा —
“नीलू, कैसी हो? बहुत दिन हो गए बात नहीं हुई। याद आ रही थी।”
सेंड बटन दबाते ही मन हल्का हो गया। अगले ही पल रिप्लाई आया —
“अरे शालिनी! मैं तो हॉस्पिटल में थी। पिछले महीने सर्जरी हुई थी। तुम्हारा मैसेज देखा था पर तब जवाब नहीं दे पाई। अब ठीक हूँ। तुम्हारा मैसेज देखकर बहुत अच्छा लगा।”
शालिनी की आँखें भर आईं। वह सोचने लगी, अगर आज भी अम्मा की बात न मानी होती तो शायद यह रिश्ता भी टूट जाता।
अगले दिन उसने अम्मा से कहा, “आप सही कहती हैं अम्मा, रिश्तों में गणित नहीं चलती। अगर मैंने भी हिसाब रखा होता, तो नीलू से बात ही नहीं हो पाती।”
सावित्री देवी ने मुस्कुराकर कहा, “देखा, प्यार का हिसाब नहीं रखा जाता, बस बाँटा जाता है। जितना बाँटो, उतना बढ़ता है।”
कुछ दिन बाद शालिनी का छोटा भाई राहुल घर आया। उसने कहा, “दीदी, आपसे बहुत नाराज़ हूँ। आप कभी फोन नहीं करतीं। हमेशा मुझे ही याद करना पड़ता है।”
शालिनी ने हँसकर कहा, “अरे पगले, अब मैं ये हिसाब नहीं रखती कि कौन पहले फोन करे। तू करेगा तो अच्छा लगेगा, मैं करूँगी तो और भी अच्छा।”
राहुल बोला, “फिर तो अब मैं ही ज्यादा फोन करूँगा।”
“कर न, मैं क्या मना कर रही हूँ,” शालिनी ने कहा और दोनों हँस पड़े।
उस शाम शालिनी ने छत पर बैठे-बैठे सोच लिया —
वास्तव में रिश्ते तभी टिकते हैं जब उनमें बराबरी नहीं, अपनापन होता है। जब हम बिना अपेक्षा के कुछ देते हैं, तभी हमें सच्चा सुकून मिलता है।
अब शालिनी ने तय कर लिया था —
वह हर उस इंसान को फोन करेगी जिसकी उसे परवाह है, चाहे वह पहले बात करे या नहीं।
कुछ दिनों बाद, उसके ससुराल की रिश्तेदार लता भाभी आईं। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, “शालिनी, तुम बड़ी मिलनसार हो गई हो। पहले तो बहुत शांत रहती थी, अब सबको जोड़कर रखती हो।”
शालिनी मुस्कुरा दी, “बस भाभी, अब मैंने रिश्तों का गणित पढ़ना छोड़ दिया है। अब मैं बस भावनाओं की भाषा समझती हूँ।”
रात को अम्मा उसके पास आईं, “बहू, अब तू वही पुरानी शालिनी लगती है — मुस्कुराती हुई, खुलकर जीने वाली। रिश्तों को निभाने का यही तरीका है। कभी मत सोच, किसने क्या किया, बस इतना सोच, तूने क्या कर सकती है।”
शालिनी ने उनके पैर छुए, “अम्मा, आपने तो मेरी सोच ही बदल दी। अब मैं किसी से उम्मीद नहीं रखती, बस जुड़ाव रखती हूँ।”
अम्मा ने कहा, “यही तो असली सुख है बहू। रिश्ते तब खूबसूरत लगते हैं जब उनमें गिनती नहीं, अपनापन होता है। जो देना है, दिल से दो — फिर लौटकर वही प्यार कई गुना होकर आता है।”
शालिनी के चेहरे पर संतोष था। उसने आसमान की ओर देखा — चाँद बादलों से निकलकर चमक रहा था, जैसे कह रहा हो — रिश्तों की रोशनी भी तब फैलती है जब दिल का आसमान साफ़ हो।
कुछ रिश्ते ऐसे ही होते हैं — उनमें गणित नहीं चलता, केवल प्रेम की गिनती होती है।
और जिसने यह गिनती सीख ली, वह कभी खाली नहीं रहता — क्योंकि दिल से दिए गए रिश्ते हमेशा लौटकर आते हैं, मुस्कान बनकर, अपनापन बनकर, और जीवन की सबसे बड़ी पूँजी बनकर।
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