सुबह का वक्त था। रसोई से रोटी सिकने की खुशबू आ रही थी, लेकिन घर का माहौल भारी था। रजनी कमरे के कोने में चुपचाप बैठी थी। सास, विमला देवी, जब दूध लेकर भीतर आईं तो देखा — रजनी की आँखें सूजी हुई थीं।
“क्या हुआ बहू? फिर से रोई है? कल तो अपने मायके से लौटकर आई है, खुश होनी चाहिए थी, पर ये तो बुझी-बुझी लग रही है,” विमला देवी ने पास बैठते हुए उसके सिर पर हाथ रखा।
रजनी कुछ देर तक चुप रही, फिर गला भर आया। उसने सास के पैरों के पास सिर रख दिया, “अम्मा, अब मुझसे नहीं होगा… डॉक्टर बोले हैं कि मेरी दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं।”
विमला देवी का हाथ काँप गया, “क्या कह रही है तू? ये कैसे हो गया?”
“पिछले कई महीनों से कमजोरी थी, पर हम सोचते रहे काम की थकान होगी। अब तो डॉक्टर ने साफ कह दिया — जब तक ट्रांसप्लांट नहीं होगा, हालत बिगड़ती जाएगी।”
रजनी का पति अरुण, एक छोटे से प्राइवेट बैंक में काम करता था। घर का खर्च मुश्किल से चलता था। डायलिसिस के खर्च ने पहले ही बचत खत्म कर दी थी। अब ट्रांसप्लांट की बात सुनकर सबकी नींद उड़ गई थी।
अरुण ने कहा, “डॉक्टर ने बताया कि अगर परिवार में किसी की किडनी मैच हो जाए तो खर्च बहुत कम होगा। इसी उम्मीद में रजनी को मायके भेजा था।”
विमला देवी ने रजनी की ओर देखा, “क्या वहाँ कुछ बात बनी?”
रजनी ने धीमे स्वर में कहा, “नहीं अम्मा, माँ ने साफ कह दिया कि अब तेरे दो छोटे भाई हैं, उनके लिए मुझे बचाकर रहना चाहिए। उन्होंने साफ मना कर दिया। कहा, ‘हमने तेरा ब्याह कर दिया, अब तेरे ससुराल वाले देखेंगे।’”
विमला देवी चुप रहीं। रजनी का सिर उनकी गोद में था, और आँसू लगातार गिर रहे थे।
“अम्मा, मुझे अपनी नहीं, अपनी बेटी की चिंता है। मैं अगर नहीं रही तो निशा का क्या होगा? वो तो अभी आठ साल की है…”
विमला देवी का गला भर आया। कुछ पल बाद बोलीं, “तू कुछ मत सोच बहू, भगवान सब ठीक करेगा।”
रजनी को उम्मीद थी कि सास शायद ढाँढस बंधा रही हैं, लेकिन वह नहीं जानती थी कि विमला देवी के मन में क्या चल रहा है।
अगली सुबह विमला देवी ने अरुण से कहा, “बेटा, रजनी को लेकर हॉस्पिटल चल। मैं भी साथ चलती हूँ।”
अरुण बोला, “अम्मा, आप क्यों? आपकी तबीयत भी ठीक नहीं रहती।”
“बस तू जैसा कह रही हूँ, वैसा कर।”
तीनों अस्पताल पहुँचे। विमला देवी ने डॉक्टर से कहा, “डॉक्टर साहब, मेरा भी टेस्ट कर लीजिए। सुना है मेरी किडनी बहू को लग सकती है।”
रजनी ने चौंककर कहा, “अम्मा, ये आप क्या कह रही हैं! आपकी उम्र साठ से ऊपर है। डॉक्टर ने कहा था, बुज़ुर्गों की किडनी लगाना जोखिम भरा होता है।”
विमला देवी मुस्कुराईं, “बेटी, तू मेरे लिए बहू नहीं, बेटी है। जब तू इस घर में आई थी, तो मैंने सोचा था भगवान ने मुझे दूसरी बेटी दे दी। अब मेरी बेटी की जान जा रही है और मैं चुप बैठी रहूँ? नहीं। मेरी किडनी, मेरा खून, मेरी ताकत — जो कुछ है, सब तेरे लिए।”
अरुण ने कहा, “माँ, आप क्यों इतनी बड़ी कुर्बानी दे रही हैं? हम किसी और से कोशिश करेंगे।”
विमला बोलीं, “किसी और से क्या होगा? मैंने अपनी जिंदगी जी ली है, अब तेरी और रजनी की बारी है। भगवान ने मुझे इसलिए ज़िंदा रखा कि आज तेरी घरवाली को जीवन दे सकूँ।”
रजनी रो पड़ी, “अम्मा, मैं ये पाप नहीं कर सकती। आप मेरी सास हैं, माँ नहीं…”
विमला ने उसके मुँह पर हाथ रख दिया, “चुप कर बेटी, कौन कहता है मैं तेरी माँ नहीं? क्या माँ सिर्फ़ जन्म देने से होती है? मैं भी माँ हूँ, जिसने तुझे बेटी बनाकर पाला, तेरा सुख-दुख बाँटा। अगर आज तुझे खो दूँगी तो मेरा भी सब खत्म हो जाएगा।”
डॉक्टर ने सभी टेस्ट किए। कुछ दिनों बाद रिपोर्ट आई — दोनों का मैच हो गया था। डॉक्टर ने कहा, “जोखिम तो रहेगा, लेकिन सफल होने की संभावना अच्छी है।”
अरुण उलझन में था। पर विमला का फैसला अडिग था। “भगवान जो करेगा, अच्छा करेगा,” उन्होंने कहा।
ऑपरेशन का दिन आ गया। पूरे परिवार की साँसें थमी हुई थीं। जब सर्जरी खत्म हुई और दोनों सुरक्षित थीं, तो अस्पताल का माहौल राहत में बदल गया।
कुछ हफ्तों बाद रजनी धीरे-धीरे ठीक होने लगी। उसकी आँखों में चमक लौट आई थी। विमला देवी भी स्वस्थ थीं, पर अब पहले से और शांत, और विनम्र हो गई थीं।
एक दिन रजनी उनके कमरे में गई। बोली, “अम्मा, मैंने तो सोचा था आप मेरी सास हैं, पर आपने साबित कर दिया कि माँ वही होती है जो बिना शर्त प्यार करे। मेरी असली माँ ने मुझे जीवन दिया था, आपने मुझे दूसरा जीवन दिया है।”
विमला देवी ने मुस्कुराकर उसका माथा चूम लिया, “बेटी, मैंने तो सिर्फ़ वही किया जो हर माँ करती है। अब तू बस अपनी नई जिंदगी को संवार। और हाँ, जब भी कभी तेरी निशा बड़ी होकर तुझसे कोई सवाल करे कि सास और माँ में फर्क क्या होता है, तो बस इतना कहना — ‘फर्क नहीं होता, बस प्यार की गहराई होती है।’”
रजनी की आँखें भर आईं। उसने झुककर उनके पैर छुए, “अम्मा, मैं वादा करती हूँ, जैसे आपने मेरी जान बचाई, मैं आपका हर पल सम्मान करूँगी।”
विमला ने मुस्कुराते हुए कहा, “यही तो चाहिए था, बेटी। अब चलो, दोनों माँ-बेटी मिलकर जीवन की नई शुरुआत करें।”
बाहर से अरुण और छोटी निशा अंदर आईं। निशा ने मासूमियत से पूछा, “दादी, अब आप और मम्मी दोनों ठीक हो न?”
विमला बोलीं, “हाँ बिटिया, अब तो हम दोनों एक ही दिल और एक ही जान से जुड़ी हैं।”
निशा खिलखिलाकर बोली, “तो अब आप मेरी दो-दो मम्मियाँ हो गईं!”
कमरे में हँसी गूँज उठी, पर उस हँसी में जीवन का सुकून था — एक माँ के त्याग, एक बहू के प्रेम और एक परिवार के पुनर्जन्म का।
विमला देवी के त्याग ने सबको सिखा दिया कि रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।
और माँ — चाहे जननी हो या सास — उसकी ममता हर दर्द से ऊपर होती है।
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