बराबरी की शुरुआत

 “मैंने कोई चोरी नहीं की… फिर भी रोज़ मुझे ही शक की नज़र से क्यों देखा जाता है?” गुस्से से कांपती हुई नन्ही नेहा ने अपना स्कूल बैग बिस्तर पर पटका और झटके से पर्दा खींचकर खिड़की बंद कर दी।

“जब देखो… ‘धीरे बोल’, ‘धीरे चल’, ‘सुनकर रह’… सब नियम मेरे लिए ही हैं! जैसे गलती मेरी ही हो!”

ड्रॉइंग रूम में बैठे उसके दादा रविंद्रनाथ ने अख़बार नीचे रखा और नथुने फुलाकर बोले, “यह लड़की बहुत ज़्यादा सिर चढ़ गई है। दिन भर मोबाइल-किताबें और दोस्त! ज़रा-सा दूध गिर गया तो ऐसे गला फाड़ रही है जैसे कोई पहाड़ टूट पड़ा!”

रसोई से नेहा की माँ स्नेहा भागती हुई आई। झट से गीला कपड़ा लेकर फर्श पोंछने लगी।

“अरे रहने दीजिए, पापा जी… मैं पोंछ देती हूँ,” वह धीमी आवाज़ में बोली।

पर स्नेहा समझ गई थी—मुद्दा दूध का गिरना नहीं था। मुद्दा था “आज़ादी” का।

आज स्कूल में नेहा का इंटर-स्कूल डिबेट फाइनल था। उसे टीम के साथ शाम तक रिहर्सल करनी थी। कोच ने साफ कहा था—“कम से कम दो घंटे बाद में रहना पड़ेगा।”

पर घर में हर बार वही जवाब मिलता—“लड़कियों का देर तक रुकना ठीक नहीं।”

स्नेहा ने पानी का गिलास उठाया, नेहा के कमरे की तरफ बढ़ी। कमरे में नेहा तकिये में मुँह दबाकर रो रही थी।

स्नेहा ने धीरे-से उसके कंधे पर हाथ रखा तो नेहा झटके से बोली, “मम्मी, आप भी वही कहोगी ना… ‘चुप रहो, समझौता करो, घर की इज्ज़त’…? आप भी तो औरत हो… आपकी सोच भी वही है।”

स्नेहा का हाथ वहीं हवा में अटक गया। बेटी की बात में ज़हर नहीं था, दर्द था—और उस दर्द का एक हिस्सा स्नेहा के अंदर भी सालों से जमा था।

वह खुद कभी कॉलेज के टूर पर नहीं गई थी। एक स्कॉलरशिप फॉर्म भरने तक पर घर ने रोक लगा दी थी—“लड़कियों को इतना आगे नहीं भेजते।”

स्नेहा ने गहरी साँस ली, “मैं तुम्हें समझाने नहीं आई नेहा… मैं तुम्हें सुनने आई हूँ।”

नेहा ने आँसू पोंछते हुए भी रूखे स्वर में कहा, “तो सुन लो—मैं थक गई हूँ! हर चीज़ पर डर, हर बात पर शक… और भाई को देखो—वो रात को भी क्रिकेट खेलने जाता है, साइकिल से दूर तक घूम आता है। उसे कुछ नहीं कहते!”

उसी वक्त बाहर से नेहा के भाई आदित्य की आवाज़ आई, “माँ! परसों वाली रात ‘नाइट रन’ है, सारे दोस्त जा रहे हैं। मुझे भी जाना है।”

दादा ने तुरंत कहा, “जाओ बेटा, लड़कों को मजबूत बनना चाहिए। बस सावधान रहना।”

नेहा ने दरवाज़ा खोलकर चीखते हुए कहा, “वाह! यह ‘सावधान रहना’ बस दो मिनट का मंत्र है और मेरे लिए ‘घर से बाहर नहीं’ का कानून!”

दादा गुस्से में तमतमाए, “ये बदतमीज़ी किससे सीख रही है? देखो, मैं साफ कह रहा हूँ—आज तुम स्कूल के बाद कहीं नहीं रुकोगी। घर सीधा आओगी।”

नेहा ने दाँत भींच लिए। कुछ बोलती, उससे पहले ही स्नेहा ने बहुत शांत आवाज़ में कहा, “पापा जी… आज मुझे आपसे बात करनी है।”

रविंद्रनाथ चौंके।

“क्या बात?”

“आज नियम बदलेंगे,” स्नेहा की आवाज़ में ठहराव था, “और फालतू बहस नहीं—बस एक फैसला।”

दादा ने ताना मारा, “अरे वाह! अब बहू भी आदेश देने लगी!”

स्नेहा ने अपना एप्रन उतारा, टेबल पर रखा और कहा, “आदेश नहीं, उदाहरण। आज रात आदित्य नाइट रन पर नहीं जाएगा।”

आदित्य उछल पड़ा, “क्यों? मैंने क्या किया?”

स्नेहा ने बेटा नहीं, पूरे घर को देखकर कहा, “बिलकुल वही बात जो आप सब कहते हैं—‘आजकल माहौल खराब है, बाहर सुरक्षित नहीं’।”

फिर आदित्य से पूछा, “तुम्हारे नाइट रन में कितने लड़कियाँ जाएँगी?”

आदित्य ने झेंपते हुए कहा, “दो… शायद तीन।”

“तो…,” स्नेहा ने धीरे-धीरे बोलते हुए कहा, “अगर माहौल खराब है, तो खतरा लड़कियों को भी है और लड़कों को भी। और अगर कोई घटना होती है तो दोष हमेशा लड़की पर क्यों आता है?

तुम कहते हो ‘हमने तो कुछ नहीं किया’, पर दुनिया में जो गलत करते हैं, वो भी तो किसी के बेटे ही होते हैं।

अगर मैं अपनी बेटी की सुरक्षा के नाम पर उसकी दुनिया छोटी करूँ, तो दूसरों की बेटियों के लिए मेरी जिम्मेदारी कहाँ गई?”

दादा ने कटाक्ष किया, “बहू, ज्यादा भाषण मत दे। लड़का है, संभाल लेगा।”

स्नेहा ने पहली बार बिना डरे कहा, “पापा जी, यही तो समस्या है—हम भरोसा लड़के की ‘लिंग’ पर करते हैं, उसके ‘चरित्र’ पर नहीं। और लड़की के चरित्र पर शक हम उसके ‘लिंग’ के कारण करने लगते हैं, उसके कामों के कारण नहीं।”

कमरे में एक अजीब-सा सन्नाटा छा गया।

नेहा हक्का-बक्का खड़ी थी—माँ का ऐसा रूप उसने पहले नहीं देखा था।

तभी आदित्य बोला, “लेकिन मम्मी, मैंने कोई गलती नहीं की…”

स्नेहा ने तुरंत उसी की पंक्ति लौटाई, “और नेहा ने कौन-सी गलती की है? उसने सिर्फ़ डिबेट की प्रैक्टिस के लिए दो घंटे रुकने को कहा है।

तुम्हें ‘मैंने गलती नहीं की’ बोलने की आदत है, तो उसे भी होगी।

अगर बिना गलती तुम्हें रोकना गलत है, तो बिना गलती उसे रोकना सही कैसे हो गया?”

दादा झल्लाकर बोले, “तो क्या चाहती हो? लड़की को रात तक बाहर छोड़ दें?”

“नहीं,” स्नेहा ने स्पष्ट कहा, “मैं चाहती हूँ कि हर नियम का आधार डर नहीं, समझ हो।

आज नेहा प्रैक्टिस करेगी। मैं खुद स्कूल जाकर उसे लाऊँगी।

और आदित्य—तुम भी जाओगे, ताकि सीखो कि बहन का साथ देना क्या होता है। तुम्हारा ‘साथ’ उसके लिए सुरक्षा भी बनेगा और सम्मान भी।”

आदित्य ने माँ की आँखों में देखा। वहाँ हुक्म नहीं था, जिम्मेदारी थी।

“मैं… ठीक है,” उसने धीमे से कहा, “मैं नेहा को छोड़कर साथ में वापस आ जाऊँगा।”

नेहा का गुस्सा कुछ पिघला, लेकिन अभी भी भीतर चोट थी।

“पर दादा जी?” उसने फुसफुसाकर पूछा।

स्नेहा ने आगे बढ़कर नेहा का हाथ थाम लिया, “कुछ बातें एक दिन में नहीं बदलतीं, बेटा। पर शुरुआत करनी पड़ती है। हर पीढ़ी के पास दो विकल्प होते हैं—या तो डर को विरासत में दे, या हिम्मत को।”

शाम को स्नेहा सच में स्कूल गई।

नेहा स्टेज पर बड़े आत्मविश्वास से बोल रही थी—“जब समाज किसी को बिना कारण रोकता है, तो वो सुरक्षा नहीं, असमानता होती है।”

स्नेहा को लगा, जैसे ये शब्द उसकी अपनी जिंदगी की गांठें खोल रहे हों।

रिहर्सल खत्म होने के बाद आदित्य ने पहली बार अपनी बहन का बैग उठाकर कहा, “चल, मैं तुझे कैंटीन से पानी दिला दूँ। और हाँ… तू अच्छी बोलती है।”

नेहा ने हैरानी से उसे देखा, फिर हल्का-सा मुस्कुरा दी।

“तू भी बुरा नहीं है… बस दादा जी का ‘प्रोजेक्ट’ मत बना कर।”

दोनों हँस पड़े।

घर लौटे तो दादा ने आदित्य को देखते ही पूछा, “आ गए? सब ठीक?”

आदित्य ने सीधा जवाब दिया, “हाँ दादाजी। और… नेहा ने अच्छा किया। वहाँ बहुत लोग थे, टीचर्स थे, गार्ड भी। कोई खतरा नहीं था।”

दादा ने कुछ कहना चाहा, पर स्नेहा की शांत, दृढ़ निगाहों के आगे उनकी आवाज़ धीमी पड़ गई।

उन्होंने बस इतना कहा, “हूँ… ठीक है।”

रात को नेहा खुद माँ के पास आई।

उसने धीरे-से कहा, “मम्मी… आज आपने मेरा साथ दिया। मैं सोचती थी आप भी सबकी तरह होंगी।”

स्नेहा ने उसे सीने से लगा लिया, “मैं भी डरती हूँ नेहा। पर डर के कारण तुम्हें छोटा करना मुझे मंजूर नहीं।

तुम्हारे सपनों की उम्र लंबी है। उन्हें घर की चार दीवारों में घुटने मत देना।”

नेहा ने आँसू पोंछकर कहा, “मैं भी एक बात सीख गई।

गलती न हो तब भी लड़ना पड़ता है… लेकिन लड़ाई गुस्से से नहीं, समझ से जीती जाती है।”

स्नेहा ने मुस्कुरा कर उसके माथे पर चुम्बन किया।

“बस यही नैतिकता है, बेटी—बराबरी मांगने से पहले, बराबरी निभाने की हिम्मत चाहिए।

और अगर घर से शुरुआत हो जाए, तो दुनिया बदलने में देर नहीं लगती।”

कॉपीराइट : प्रियंका मुकेश पटेल


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