सुबह से ही मेरा मन अजीब-सी घबराहट से भरा था। अलमारी खुली पड़ी थी, सूटकेस बीच कमरे में खुला हुआ था और मैं मशीन की तरह कपड़े तह करके उसमें रखती जा रही थी। आज मैंने तय कर लिया था — अब आर्यन के साथ एक दिन भी नहीं रहना।
मैंने आख़िरी जोड़ी कपड़े भी सूटकेस में रखे, चेन खींचकर बंद किया और एक लंबी साँस ली। बस अब करना इतना था कि नीचे वाली शर्मा आंटी के पास घर की चाबी छोड़ दूँ, कैब बुलाऊँ और सीधा स्टेशन।
मैंने कमरे के दरवाज़े की तरफ़ कदम बढ़ाया ही था कि एकदम से ठिठक गई। पैर जैसे ज़मीन से चिपक गए हों। लौटकर फिर बिस्तर पर बैठ गई। दोनों हथेलियों से चेहरा ढँककर बैठी रही।
क्या मैं सच में सब ख़त्म करने जा रही हूँ? पाँच साल की शादी… मम्मी–पापा की उम्मीदें… आर्यन का का प्यार… क्या ये सब इतना हल्का है कि एक सूटकेस में बाँधकर चला जाऊँ?
याद आते ही पापा का चेहरा आँखों के सामने घूम गया।
कितनी मेहनत से उन्होंने मेरी शादी के लिए लड़का ढूँढा था। दो साल तक रिश्ते आते रहे, पापा एक-एक लड़के की पूरी छानबीन करते — किसी की नौकरी में गड़बड़, किसी के घर में दहेज की खुली माँग, किसी का रवैया ठीक नहीं। मम्मी कहतीं, “ज़्यादा परफ़ेक्ट मत ढूँढो, बच्ची बैठी है घर में।” लेकिन पापा बस मुस्कुराकर कहते, “मेरी तारा के लिए गलत फैसला नहीं करूँगा।”
आख़िर कई रिश्ते ठुकराने के बाद उन्हें आर्यन पसंद आया — क्लीन रिकॉर्ड, अच्छा परिवार, सॉफ्टवेयर इंजीनियर की जॉब, शालीन बोलचाल।
शादी के पहले दिन याद आते हैं तो आज भी दिल में हल्की-सी मुस्कान आ जाती है। आर्यन का वो घबराया-सा चेहरा, पहली रात मेरे झिझकते हुए सवाल, उसकी धीमी-सी हँसी, “तुम चाहो तो हम सिर्फ़ दोस्त बने रह सकते हैं कुछ दिन, कोई जल्दी नहीं है।”
शादी के पहले तीन साल कितने अच्छे रहे। हर साल कहीं न कहीं घूमने जाना — कभी मनाली, कभी जैसलमेर, कभी साउथ की कोई हिल स्टेशन। हनीमून वाला फेज़ खिंचता ही चला गया। हमने प्लान किया था कि पाँचवें साल तक हम बस एक-दूसरे को जी भरकर जीएँगे, फिर बच्चा प्लान करेंगे।
लेकिन चौथे साल के बीचोबीच जैसे किसी ने हमारी जिंदगी में ‘पॉज़’ लगा दिया।
आर्यन एक दिन दफ़्तर से लौटा तो उसके साथ एक औरत थी। करीब 32–33 साल की, सादी-सी सूती साड़ी, बाल लापरवाही से बँधे, आँखों के नीचे हल्के काले घेरे।
“तारा, ये काव्या है,” आर्यन ने सहजता से परिचय करवाया, “हमारे ऑफिस में प्रोजेक्ट मैनेजर है। कुछ दिन हमारे यहाँ रहेगी।”
मेरे कानों में बस आख़िरी लाइन गूँजी — कुछ दिन हमारे यहाँ रहेगी।
मैंने मुस्कुराकर नमस्ते किया, दाल–चावल परोसे, उनके लिए चाय बनाई, लेकिन भीतर कुछ चुभने लगा था।
रात को जब हम कमरे में आए, तो खुद को रोक नहीं पाई, “अच्छा, मैडम जी कौन हैं? आज तक कभी नाम नहीं सुना। तुम्हारी कंपनी में और भी तो लोग हैं, कभी किसी को घर ठहरने के लिए नहीं लाए। आज अचानक काव्या जी ही क्यों?”
आर्यन जैसे इस सवाल के लिए तैयार था, “अरे, काव्या अकेली रहती है यहाँ। अभी उसके पापा को स्ट्रोक आया है, वो अपने शहर से पापा को यहाँ इलाज के लिए लाई है। अस्पताल के पास कमरा ढूँढ रही थी, बहुत परेशान थी। मैंने ही कहा कि जब तक ठीक से जगह नहीं मिलती, हमारे यहाँ रह लो। ऊपर वाला कमरा खाली है ही।”
बात उसके मुँह से साफ निकल गई, लेकिन मेरे दिल में धुंध और गहरी हो गई।
ऑफिस की बहुत सारी औरतें होंगी, अकेली तो और भी होंगी। लेकिन घर में जगह सिर्फ़ इन्हीं के लिए क्यों?
मैंने धीरे से फिर पूछा, “तुम्हारे इतने क्लोज़ कब से हो गए? मैंने तो कभी नाम तक नहीं सुना।”
“तुम हर बात में डिटेल्स चाहोगी क्या?” वो थोड़ा चिढ़ गया, “ऑफिस में साथ काम करते हैं सालों से। तुम्हें हर सहकर्मी का बायोडाटा पढ़वाना मेरा काम है क्या? तारा, थोड़ा ट्रस्ट करो।”
मैं खामोश हो गई, पर भरोसा नहीं कर पाई। ऊपर वाले कमरे में रहती काव्या हर समय मुझे जैसे याद दिलाती रहती — “यहाँ एक तीसरी मौजूद है।”
शुरू के दो–तीन दिन ठीक रहे। मैं नीचे की किचन में काम करती, वो ऊपर के कमरे में, और आर्यन अपनी नौकरी में। लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदलने लगा।
पहले आर्यन ऑफिस से आते ही “तारा, चाय मिलेगी?” कहता, अब दरवाज़ा खोलते ही सीढ़ियों की तरफ़ बढ़ जाता, “काव्या, कैसे हैं अंकल? कुछ चाहिए क्या ऊपर?”
मैं रसोई से झाँककर देखती — दोनों ऊपर हॉल में बैठकर चाय पी रहे हैं, लैपटॉप खुला है, कुछ बात कर रहे हैं। मैं नीचे सिंक में बर्तन धोती रहती।
वीकेंड आते ही पहले हमारा कोई आउटिंग फ़िक्स होता था, अब तीन लोगों का होता। पहले जहाँ कार में मैं आर्यन के साथ वाली सीट पर बैठती थी, वहाँ अब कई बार काव्या बैठी होती, और मैं पीछे। दिल जैसे मैराथन दौड़ रहा था, पर मैं चुप थी।
एक रात मैं सह न पाई। जब आर्यन कमरे में आया, मैंने सीधा पूछा,
“कब तक रहेगी वो यहाँ? एक महीना हो गया। कोई होटल, कोई हॉस्टल, कोई पीजी… कुछ तो मिला ही होगा।”
आर्यन ने बहुत शांत स्वर में कहा, “तुम्हें परेशानी क्या है? ऊपर का कमरा वैसे भी खाली था। और कौन-सा वो दिनभर तुम्हारे सामने घूमती रहती है। बेचारी पर कितना बोझ है — अकेले पिता की देखभाल, नौकरी का प्रेशर… इंसानियत नाम की भी चीज़ होती है।”
उसके “बेचारी” शब्द पर मेरे भीतर कुछ टूट-सा गया। पहले “बेचारी” मैं होती थी उसके लिए, आज कोई और उस जगह पर आ चुकी थी।
मैंने धीरे से कहा, “इंसानियत के नाम पर अपने घर का संतुलन मत बिगाड़ो, आर्यन। मैं तुमसे… और अपने मन से लड़ते-लड़ते थक गई हूँ।”
उसने पहली बार मेरी आँखों में ग़ुस्सा देखा और फिर मुड़कर सोफ़े पर जाकर लेट गया। उस रात हम दोनों ने एक शब्द भी नहीं बोला।
दिन बीतते गए। अब तो काव्या सिर्फ़ ऊपर कमरे तक सीमित नहीं रही थी। कभी-कभी किचन में आकर कहती, “दीदी, मैं भी सब्ज़ी काट देती हूँ, आप अकेले थक जाती होंगी।”
मैं मुस्कुरा कर इनकार कर देती, “नहीं, मैं कर लूँगी।”
जहाँ पहले आर्यन की पसंद का खाना सिर्फ़ मैं बनाती थी, अब कई बार वो ऊपर से आवाज़ देता,
“तारा, आज काव्या ने बढ़िया पास्ता बनाया है, तुम भी ऊपर आ जाओ।”
मैं ऊपर जाने का नाटक करती, पर बहाने से प्लेट लेकर नीचे ही बैठकर खाना खाती, ताकि मेरी आँखों की नमी से कोई सवाल न पूछ ले।
इसी बीच एक और झटका लगा — मेरे ससुर जी का फोन आया,
“बहू, डॉक्टर ने बोला है कि मेरी आँख का ऑपरेशन कराना पड़ेगा। सोच रहे हैं दो–तीन हफ़्ते के लिए तुम्हारे पास आ जाएँ, आर्यन भी साथ रहेगा, इलाज भी आसानी से हो जाएगा।”
मैं अंदर से खुश भी हुई और डर भी गई। कम से कम मेरे सामने तो सब खुलकर आएगा… ये लोग क्या रोल अदा कर रहे हैं एक-दूसरे की जिंदगी में।
दो दिन बाद सास–ससुर आ गए। मैंने पूरी लगन से कमरा तैयार किया, उनके पसंद का नाश्ता बनाया, दवाईयों की जगह तय की। वे आए, आशीर्वाद दिया। अभी बैठे ही थे कि काव्या ऊपर से उतरकर आई, “नमस्ते अंकल–आंटी।”
आंटी के चेहरे पर खुशी फैल गई, “अरे काव्या बेटा! तू यहीं है? आर्यन ने तो बताया ही नहीं कि तू आजकल इसके साथ रहती है। अच्छा किया, हमें तो पहले से ही पता है कि तुम दोनों का रिश्ता कितना पुराना है।”
मेरे कानों में “पुराना रिश्ता” शब्द हथौड़े की तरह बजा। यानी इनको पहले से सब पता है… और मुझे आख़िरी नंबर पर रखकर सब चल रहा है।
रात को जब सब कमरे में चले गए, मैं अपने कमरे में बैठकर रो रही थी। खुद पर गुस्सा भी था, दुख भी। क्या मैं सिर्फ़ नाम की पत्नी हूँ? क्या मेरा अस्तित्व सिर्फ़ ये बर्तन, झाड़ू, खाना और कपड़े हैं?
इसी उदासी में अगले दिन मैंने सूटकेस निकाला, कपड़े रखे, ज़रूरी कागज़ निकाले और तय कर लिया — बस, अब खत्म।
शाम को आर्यन का ऑफिस से आने का समय करीब था कि सासू माँ ने दरवाज़ा बंद करके मुझे कमरे में बुलाया,
“तारा, तुम हमसे नाराज़ हो क्या?”
“नहीं तो, मम्मी… क्यों?” मैंने नज़रे चुराईं।
“क्योंकि माँ सब समझती है।” उन्होंने धीरे से मेरा हाथ थामा, “काव्या यहाँ आई तो थी अपने बाप की बीमारी के कारण, पर दिल में उसकी पुरानी गलती अभी भी जड़ें जमाकर बैठी है। वो उस लाईन को पार कर रही है जो नहीं करनी चाहिए थी। लेकिन बेटा, तुम कुछ गलत मत सोचना आर्यन के बारे में।”
मेरी आँखें फैल गईं, “आपको सब पता है?”
“सब नहीं, पर इतना ज़रूर कि मेरा बेटा कितना बदल चुका है पहले से। कभी वो काव्या के लिए जान देने को तैयार रहता था, और जब उसने पैसे और स्टेटस के लिए उसे छोड़ा, तो वो महीनों पागल की तरह घूमता था। तभी तो लोगों ने हमें सलाह दी कि इसकी शादी कर दो। और हमने तुझे चुना — क्योंकि तू समझदार है, संतुलित है।”
“और काव्या?” मेरे मुँह से अपने आप निकला।
“काव्या ने दो साल पहले अपनी शादी तोड़ दी, तबसे वो बीच-बीच में हमसे बात करती रही। पर हमने उसे साफ कह दिया था, हमारे घर की दहलीज़ पर तुम्हारे लिए अब जगह नहीं है। वो एक दो बार मिलने भी आई थी, हमने चाय पिला कर भेज दिया। पर इस बार सीधे आर्यन के पास आ गई… और उसने जो किया, वो सिर्फ़ दोस्ती और इंसानियत समझकर किया। बेटा, माँ हूँ उसकी, आँखों की चमक से पहचानती हूँ — वो अपने को तुझसे जोड़ चुका है, उसमें अब कोई दोराहापन नहीं।”
मैं चुप रही। मन कह रहा था कि सासू माँ मेरी हिम्मत टूटने से बचाना चाहती हैं, लेकिन शक का धुंध अब भी था।
उसी रात कुछ देर बाद जोर-जोर से आवाजें आने लगीं। ऊपर हॉल के कमरे से। मैं, सासू माँ और पापा जी चौंककर ऊपर गए। मैं दरवाज़े के बाहर ही रुक गई, अंदर से काव्या की रुँधी हुई आवाज़ आ रही थी—
“आर्यन, मैं मानती हूँ, मैंने गलती की। मैं तुम्हें छोड़कर चली गई थी, पर अब सब समझ गई हूँ। तुम ही मेरा असली सहारा थे, हो और रहोगे। एक मौका और दे दो… हम फिर से वैसे हो सकते हैं जैसे कॉलेज में थे।”
आर्यन की आवाज़ गुस्से में थोड़ी ऊँची थी,
“तुम्हें पता भी है क्या बोल रही हो? तुम होश में हो, काव्या? मैं एक शादीशुदा आदमी हूँ। मेरी पत्नी नीचे बैठी है, जिसके साथ मैंने पाँच साल बिताए हैं। जिसने मुझे उस अंधेरे से निकाला, जिसमें तुमने धक्का दिया था।”
“अंधेरा?” काव्या चीखी, “अंधेरा तो अब मुझे दिख रहा है! तुम उसके साथ खुश नहीं हो, ये मैं जानती हूँ। तुम्हारी आँखों में वो चमक नहीं होती जो पहले होती थी…”
“बस, बहुत हो गया।” अचानक आर्यन की आवाज़ में एक ठहराव आया, “तुम्हें प्यार का मतलब आज तक समझ ही नहीं आया, काव्या। कॉलेज में मैं तुम्हारे पीछे पागल था, तुमने साफ कहा था — ‘तुम मेरे लिए अच्छे दोस्त से ज्यादा कुछ नहीं।’ फिर तुम्हारे लिए पैसे वाला लड़का ज़्यादा ज़रूरी हो गया। ठीक है, तुम्हारा फैसला था।”
कुछ पल खामोशी रही, फिर वह फिर बोला,
“तुम्हें पता है, तुम्हारे जाने के बाद मैं रात–रात भर क्या सोचता था? कि दुनिया खत्म हो गई, जिंदगी बेमानी हो गई। लेकिन फिर मेरी जिंदगी में तारा आई। उसने मुझे बिना किसी शर्त के अपनाया, जबकि मैंने उसे कभी अपने अतीत की गहराई साफ-साफ बताई भी नहीं। उसकी सादगी, उसकी ईमानदारी, उसके ताने-बाने में बुना एक छोटा-सा सा संसार… यही मेरा घर है, यही मेरा सुकून है।”
काव्या कुछ कहने लगी, “पर मैं—”
“नहीं,” आर्यन की आवाज़ सख्त हो गई, “तुम फिर एक बार वही गलती करना चाहती हो — सिर्फ़ अपने बारे में सोच रही हो। तुमने मेरी दोस्ती की इज्जत नहीं रखी, मेरी शादी का सम्मान नहीं रख रही। और जो औरत किसी और की शादी तोड़ने की सोच रखे, मैं उसे अपनी जिंदगी में जगह देने के बारे में सोचना भी गुनाह मानता हूँ।”
मैं दरवाज़े पर खड़ी काँप रही थी। सासू माँ के हाथ ने मेरे कंधे पर हल्का-सा दबाव दिया — जैसे कह रही हों, “देख लिया?”
अंदर से अचानक कुर्सी खिसकने की आवाज़ आई, फिर दरवाज़ा खुला। आर्यन ने बाहर खड़े हम तीनों को देखा, उसका चेहरा लाल था, आँखों में गुस्सा भी था और चोट भी।
“मम्मी, पापा… तारा…” उसने धीरे से कहा, “मैंने सोचा था अकेले में सुलझा लूँगा, लेकिन शायद ये देखना ज़रूरी था।”
काव्या ने भी हमें देखा, उसकी आँखें शर्म से झुकी हुई थीं। बिना कुछ बोले वह अपना बैग उठाकर तेजी से सीढ़ियाँ उतर गई, दरवाज़ा खुला–बंद हुआ, और घर में एक गहरी खामोशी छा गई।
कुछ पल बाद ससुर जी ने धीमी आवाज़ में कहा,
“आर्यन, बेटा… अब तू तारा के साथ नीचे जा। उसे बहुत जवाब देने हैं तुझे।”
आर्यन ने मेरी तरफ़ देखा, मेरी आँखों में पानी था, लेकिन इस बार उसके लिए नहीं, अपने लिए —
मैं इस आदमी को छोड़कर जा रही थी, जिसने मेरे लिए सबकी नज़रों में खुद को साफ रखा था।
कमरे में आते ही मैं बिस्तर पर बैठ गई, आँसू अपने आप बहने लगे।
आर्यन मेरे सामने कुर्सी खींचकर बैठ गया,
“तारा, मुझे माफ़ कर दो। मुझे पहले ही तुम्हें सब साफ-साफ बता देना चाहिए था। मैं डरता रहा कि कहीं तुम गलत न समझो, कहीं तुम मुझे छोड़ न दो… और तुम्हारी आँखों में वही डर देखता रहा जो आज मैंने तुम्हारे सूटकेस में देखा।”
मैं हिचकियों के बीच बोली, “मुझे लगा था आप— आप मुझे छोड़ देंगे… मैं सोच चुकी थी कि मैं इस घर से चली जाऊँगी… हमेशा के लिए…”
आर्यन ने मेरी तरफ़ झुककर कहा,
“अगर तुम चली जाती न, तारा… तो इस बार मैं सच में टूट जाता। पहले जो टूटा था, वो एक नादान लड़का था। अब जो टूटता, वो एक पति होता… एक दोस्त… जो तुम्हारे प्यार का आदी हो चुका है।”
मैंने रोते-रोते कहा, “मैंने भी आपको गलत समझा, आपकी अच्छाई को शक की नज़र से देखा। मुझे लगा मैं बस… बाधा बन गई हूँ तुम्हारी जिंदगी में… जैसे मैं ही तीसरी हूँ।”
आर्यन ने आगे बढ़कर मेरे हाथ पकड़ लिए,
“तुम तीसरी नहीं हो, तारा। तुम ही पहली हो, तुम ही आख़िरी हो। बाक़ी सब बस अधूरे पन्ने थे।”
उसने सूटकेस की तरफ़ देखा, उठकर उसे बंद किया और अलमारी के ऊपर रख दिया।
“यह सूटकेस जब फिर निकलेगा न,” उसने मुस्कुरा कर कहा, “तो उसमें तुम्हारे और मेरे, और हमारे होने वाले बच्चे के कपड़े होंगे, घूमने जाने के लिए। भागने के लिए नहीं।”
मैंने उसकी तरफ़ देखा। पहली बार बहुत दिनों बाद उसके चेहरे पर वही पुरानी नरमी, वही भरोसा दिखा जो शादी के पहले सालों में देखा था।
मैंने धीमे से कहा,
“आर्यन… हम दोबारा से शुरू कर सकते हैं?”
उसने बिना सोचे जवाब दिया,
“नहीं, हम दोबारा से नहीं —
हम यहीं से शुरू करेंगे।
जहाँ पर प्यार कभी रुका ही नहीं था, बस डर की धूल जम गई थी।”
उस रात मैं पहली बार बिना डर, बिना शक, बिना सूटकेस के बोझ के, उसके सीने पर सिर रखकर सो पाई।
और सुबह जब आँख खुली, तो लगा —
जैसे किसी ने हमारे रिश्ते पर से ग़लतफ़हमी का पर्दा उठाकर फिर से रोशनी को अंदर आने दिया हो।
मुकेश पटेल
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