किसी की मेहनत का मूल्य अगर नहीं चुकाया जाए, तो वक्त वह कीमत खुद वसूल कर लेता है।

 “आओ सविता, ज़रा मेरे पैर में तेल लगा दो,” मीना ने थके हुए स्वर में कहा।

“हाँ दीदी, अभी लगाती हूँ। आज तो पैर फटने लगे हैं आपके,” सविता ने जल्दी से पुराना तौलिया बिछाया और सरसों का तेल हाथ में लेकर मीना के पैर दबाने लगी।

“थोड़ा अच्छे से मल दे, सविता। कल से लगातार भाग-दौड़ रही हूँ। वैसे, वो कपड़े मशीन में डाल देना और कल वाले कपड़े प्रेस करके रख देना। शाम को मेहमान आने वाले हैं।”
“ठीक है दीदी, कर दूँगी।”

मीना ने अख़बार पर नज़र डाली और बोली, “सविता, तू तो भाग्यशाली है, दो-दो बेटियाँ हैं। पढ़ा-लिखा ले, वरना बड़ी होकर तेरी तरह घरों में काम करेंगी।”
सविता ने सिर झुका लिया, “नहीं दीदी, मैं नहीं चाहती मेरी बेटियाँ मेरी तरह रहें। मैं तो चाहती हूँ कि वो पढ़-लिखकर किसी ऑफिस में काम करें। बस भगवान इतना सहारा दे कि मैं उनकी फीस भर पाऊँ।”

मीना मुस्कुरा दी, “अरे, चिंता मत कर। देख, मैं तेरा ध्यान रखती हूँ न! तू मेरे यहाँ झाड़ू-पोंछा करती है, लेकिन जब-जब मैं तुझसे थोड़ा अतिरिक्त काम करवाती हूँ, तो उसके पैसे मैं अपने पास तेरे नाम से जमा करती जा रही हूँ। जब तेरी बेटियों की पढ़ाई का वक्त आएगा, तब वही पैसे तेरे काम आएँगे।”

सविता की आँखें चमक उठीं।
“सच दीदी?”
“अरे हाँ, मैं झूठ क्यों बोलूँगी! तू मेहनती और ईमानदार है, इसलिए मैं तेरा भला चाहती हूँ। बस अपना काम पूरे मन से करती रह, बाकी मैं देख लूँगी।”
“भगवान आपको बहुत सुख दे दीदी,” सविता ने सिर झुकाकर कहा।

सविता का विश्वास सच्चा था। वह रोज़ सुबह आठ बजे मीना के घर आ जाती। पहले झाड़ू-पोंछा करती, फिर कपड़े धोती, बच्चों के टिफ़िन बनाती और कभी-कभी मीना की माँ को अस्पताल ले जाती। शाम को घर लौटते हुए उसकी पीठ टूट जाती, पर चेहरे पर थकान नहीं, उम्मीद होती—कि उसकी मेहनत एक दिन उसकी बेटियों को ऊँचा उठाएगी।

उसकी बड़ी बेटी पूजा बारहवीं में थी और छोटी रेशमा आठवीं में। दोनों पढ़ाई में बहुत तेज़ थीं। मोहल्ले के शिक्षक भी कहा करते, “अगर ये बच्चियाँ अच्छे कॉलेज में चली गईं, तो माँ का नाम रोशन कर देंगी।”

सविता उन शब्दों को सुनकर गदगद हो उठती। हर शाम वह अपनी दोनों बेटियों के सिर पर हाथ फेरती और कहती, “बस तुम लोग पढ़ लो, यही मेरी सबसे बड़ी कमाई है।”


कुछ महीनों बाद पूजा को शहर के सबसे अच्छे कॉलेज में प्रवेश मिल गया। सविता की खुशी का ठिकाना न था, पर समस्या एक ही थी—फीस का इंतज़ाम।

अगले दिन वह जल्दी-जल्दी मीना के घर पहुँची।
“दीदी, एक बात कहनी थी…”
“हाँ, बोल सविता, क्या हुआ?” मीना ने चाय की चुस्की लेते हुए पूछा।
“दीदी, मेरी बड़ी बिटिया पूजा को अच्छे कॉलेज में एडमिशन मिल गया है। आपसे जो एक्स्ट्रा काम के पैसे जमा करवा रही थी, वही दे दीजिए। उसी से मैं उसकी फीस भर दूँगी।”

मीना के चेहरे पर हल्की झुँझलाहट आई।
“कौन से पैसे सविता?”
“अरे दीदी, आप ही ने तो कहा था कि जब भी मैं कपड़े धोऊँ या आपकी माँ को अस्पताल ले जाऊँ, तो उसके पैसे आप मेरे नाम से जमा करेंगी।”
मीना ने ऊबकर कहा, “ओह वो बात! सविता, वो तो मैंने ऐसे ही कहा था। वैसे भी, इस महीने हमारा बहुत खर्च है। छुट्टियों में हमें मनाली जाना है। बाद में देख लेंगे।”

सविता के गले से शब्द नहीं निकले।
“दीदी, पर मैं रोज़ तीन-तीन घंटे ज़्यादा काम करती रही, इस उम्मीद में कि पैसे जमा हो रहे हैं।”
“अरे छोड़ो न, कौन तीन घंटे का हिसाब रखता है! वो तो तुम्हारे अपने काम का हिस्सा था।”

सविता के दिल में जैसे किसी ने पत्थर रख दिया।
“दीदी, आपने धोखा किया है।”
“अब तू ज़्यादा जुबान मत चला,” मीना ने ऊँची आवाज़ में कहा।
सविता की आँखों में आँसू थे।
“मेरा विश्वास तोड़ दिया आपने। अब मैं यहाँ काम नहीं करूँगी।”
“तेरी मर्ज़ी,” मीना ने लापरवाही से कहा और अख़बार में सिर झुका लिया।

सविता भारी मन से बाहर निकली। बरसात के बादल घिर चुके थे, पर उससे भी ज़्यादा अंधेरा उसके मन में छा गया था। उसने तय किया, अब किसी के घर में इतना भरोसा नहीं करेगी।


कुछ महीनों बाद मीना की ज़िंदगी में भी बादल छा गए।
एक सुबह सीढ़ियों से फिसलकर उसका पैर टूट गया।
डॉक्टर ने प्लास्टर बाँधते हुए कहा, “कम से कम दो महीने आराम चाहिए।”

मीना के पति विजय का उसी हफ्ते विदेश दौरे पर जाना तय था।
“मीना, मैं क्या करूँ? यह टूर बहुत ज़रूरी है,” उन्होंने कहा।
“तुम जाओ, मैं किसी को काम पर रख लूँगी,” मीना ने कहा, पर उसे अंदाज़ा नहीं था कि अच्छा काम करने वाला मिलना कितना मुश्किल है।

दो दिन तक किसी कामवाली ने दरवाज़ा तक नहीं खटखटाया। फिर एक दिन आशा नाम की औरत आई।
“मैडम, चार घरों में काम करती हूँ, पर आपके यहाँ आ सकती हूँ—बस चार गुना पैसे दूँ तो।”

मीना के पास कोई और विकल्प नहीं था।
“ठीक है, बस काम सही से करना।”
आशा मुस्कुराई, “होगा मैडम, पर थोड़ा एडवांस चाहिए। सास बीमार है, दवा लेनी है।”

मीना ने दस हज़ार रुपये दे दिए।
पहले हफ्ते तक सब ठीक चला, फिर आशा का ध्यान काम से ज़्यादा फोन पर रहने लगा।
“मैडम, मेरे पति गाँव गए हैं, वहाँ कुछ दिक्कत हो गई है। मुझे बीस हज़ार और चाहिए।”

मीना ने चौंककर कहा, “अरे, अभी तो पैसे दिए थे!”
“वो तो खर्च हो गए। अब नहीं दोगी तो मुझे जाना पड़ेगा।”
मीना मजबूर थी, उसने पैसे दिए—और अगले दिन आशा गायब थी।

कई हफ्तों तक मीना ने उसका इंतज़ार किया, पर वह कभी वापस नहीं आई।


मीना अकेले बैठी थी, पैर में प्लास्टर, घर बिखरा पड़ा था।
उसे याद आया—वही सविता, जो हर काम बिना कहे करती थी, जो कभी पैसों की ज़िद नहीं करती थी, वही सविता जिसे उसने धोखा दिया था।

मीना की आँखों से आँसू बह निकले।
“मैंने कैसी गलती की थी,” उसने खुद से कहा।

उसने फोन डायरी खोली और सविता का नंबर ढूँढा।
“हैलो, सविता बोल रही है?”
“हाँ, कौन?”
“मीना हूँ… कैसी हो?”
सविता चुप रही।
“सविता, मुझे माफ़ कर दो। मैंने तुझसे जो किया, वो गलत था। मुझे तेरी बहुत ज़रूरत है।”

सविता ने धीरे से कहा, “दीदी, मेरी बेटियाँ अब कॉलेज जा रही हैं। मैं अब तीन घरों में काम करती हूँ। वक्त नहीं रहता।”
मीना बोली, “बस दो महीने के लिए आ जाओ, तेरे जितना अच्छा काम कोई नहीं करता।”
सविता कुछ सोचकर बोली, “दीदी, काम तो मैं कर दूँगी, पर इस बार पैसे जमा नहीं करूँगी। जो काम होगा, उसी दिन का हिसाब होगा।”

मीना ने आँसू पोंछते हुए कहा, “सही कहा तूने, अब मैं भी वही सिख रही हूँ।”


सविता अगले दिन आई।
मीना के पैर पर प्लास्टर देखकर बोली, “देखा दीदी, भगवान सब देखता है।”
मीना ने सिर झुका लिया, “मुझे सज़ा मिल चुकी है, सविता। अब मैं दूसरों की मेहनत का हक़ नहीं मारूँगी।”

धीरे-धीरे दो महीने बीते। मीना के पैर ठीक हुए और सविता फिर अपने अन्य घरों में लौट गई।
पर अब मीना हर महीने सविता की दोनों बेटियों के कॉलेज फ़ीस में कुछ मदद भेज देती थी—बिना बताए।


सालों बाद जब पूजा ने एमबीए किया और शहर की नामी कंपनी में जॉब पाई, तो उसने अपनी पहली सैलरी से साड़ी और मिठाई लेकर मीना के घर पहुँची।
“दीदी, आज मैं यहाँ इसलिए आई हूँ क्योंकि मेरी माँ ने कहा था—जिसने तुम्हें दुख दिया, उसे माफ़ करना। तभी ज़िंदगी आगे बढ़ती है।”

मीना की आँखें भर आईं।
“बेटी, मैं तुम्हारी माँ की कर्ज़दार हूँ। उन्होंने मुझे इंसान बनना सिखाया।”

सविता दरवाज़े पर खड़ी मुस्कुरा रही थी।
उसकी झुर्रियों में संघर्ष की लकीरें थीं, पर चेहरे पर आत्म-संतोष की रोशनी थी।

कर्मों का फल वही था—जो वक्त ने सामने रख दिया था।
जिसने धोखा दिया, उसे भी किसी ने धोखा दिया।
और जिसने ईमानदारी दिखाई, उसे जीवन ने सम्मान लौटाया।

सच्चाई यही है—
किसी की मेहनत का मूल्य अगर नहीं चुकाया जाए, तो वक्त वह कीमत खुद वसूल कर लेता है।

मूल लेखिका 

सरोज माहेश्वरी


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ