मन के पर्दे हटे तो रिश्ते उजले हो गए

 गर्मी की दोपहर थी। आंगन में नीम के पेड़ की छाँव में चारपाई बिछी थी। वहीं लेटी थीं नंदिता भाभी — घर की बड़ी बहू, और अब पिछले दस दिनों से बिस्तर पर थीं। तेज़ बुखार और लगातार सिरदर्द ने उन्हें निढाल कर दिया था। डॉक्टर ने कहा था — “आपको आराम की सख्त ज़रूरत है, वरना हालत बिगड़ सकती है।”

घर में सभी थोड़ा चिंतित थे, मगर सबसे ज़्यादा सक्रिय थी छोटी बहू — साक्षी। वही जो अब तक सबकी नज़रों में “अपने ही संसार में रहने वाली, थोड़ा बेरुखी दिखाने वाली” बहू मानी जाती थी।

लेकिन पिछले दस दिनों में उसने सबकी धारणा बदल दी थी।

वह सुबह चार बजे उठती, चूल्हे पर चाय बनाती, बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करती, ससुरजी के लिए नाश्ता और नंदिता भाभी के लिए हल्का दलिया बनाकर ऊपर वाले कमरे में पहुँचाती। फिर दवा देती, पैर दबाती, ठंडी पट्टियाँ रखती — और यह सब बिना किसी दिखावे के।

नंदिता को खुद हैरानी होती। “ये वही साक्षी है जो पहले मुझसे आँख मिलाने से भी कतराती थी?”
हर बार जब साक्षी कमरे में आती, उसके चेहरे पर शांति और सच्ची सेवा का भाव झलकता।

 

एक समय था जब नंदिता और साक्षी में संवाद नाममात्र का था।
नंदिता अक्सर सोचती — “पता नहीं इस लड़की को क्या घमंड है! न नमस्ते ढंग से करती है, न साथ बैठती है, न घर के काम में हाथ बँटाती है।”

और उधर साक्षी के मन में भी अपने पूर्वाग्रह थे।
वो सोचती — “भाभी तो बस काम से बचने के बहाने ढूँढती हैं। कभी सिरदर्द, कभी मायके जाना, कभी पूजा के नाम पर आराम। घर के बड़े लोग भी तो यही कहते हैं कि नंदिता भाभी हमेशा अपने मन की करती हैं।”

यह धारणा साक्षी के मन में जम गई थी।

बीमारी के पहले दिन जब डॉक्टर ने कहा कि “कम से कम एक हफ़्ता पूर्ण विश्राम,” तो घर में सब थोड़े असहज थे।
ससुरजी बोले — “अरे बहू, आराम करो, बाकी सब संभल जाएगा।”
पर असल में कोई जानता नहीं था कि घर का ढाँचा नंदिता पर कितना निर्भर था।

किचन से लेकर मेहमानों की चाय तक, बच्चों के कपड़ों से लेकर पूजा के प्रसाद तक — सब उसी के जिम्मे था।
और अब जब वह बीमार थी, घर जैसे ठहर गया था।

ऐसे में साक्षी ने बिना कहे सब थाम लिया।

पहले दिन ही उसने कहा —
“पापा जी, आप चिंता मत कीजिए। अब से घर का सारा काम मैं संभाल लूँगी। भाभी को बस आराम करना है।”

उसकी बात सुनकर सब थोड़े चकित हुए, लेकिन किसी ने कुछ नहीं कहा।

दिन गुजरते गए, और साक्षी ने अपने कर्मों से सबका दिल जीत लिया।
वो चुपचाप काम करती, किसी को दोष नहीं देती, किसी से तुलना नहीं करती।

तीसरे दिन जब नंदिता ने थोड़ा होश में आते हुए पूछा —
“साक्षी, तुम थक नहीं जाती इतनी भागदौड़ में?”
वो मुस्कुराई —
“थकती तो हूँ, भाभी, पर मन को शांति मिलती है। आप ठीक रहें, बस यही दुआ है।”

नंदिता के मन में कुछ हलचल हुई।
“जिस लड़की को मैं अब तक ठंडी और उदासीन समझती थी, वो इतनी संवेदनशील कैसे?”

उसके भीतर सवाल उठे, पर उत्तर कुछ दिन बाद खुद मिला।

एक हफ्ते बाद नंदिता कुछ बेहतर महसूस कर रही थीं। डॉक्टर ने कहा था कि अब वो बैठ सकती हैं।

उस दिन शाम को जब घर के सब लोग सो गए, नंदिता ने साक्षी को बुलाया।
“साक्षी, इधर बैठो मेरे पास। मैं सोचती हूँ, आज तुम्हें दिल की बात कह दूँ।”

साक्षी थोड़ी झिझकी, “जी भाभी, कहिए।”

नंदिता ने स्नेह से उसका हाथ पकड़ा —
“तुमने मेरी बहुत सेवा की है इन दिनों। सच कहूँ तो तुम्हारे कारण ही मैं जल्दी ठीक हो पाई। मगर एक बात हमेशा मेरे मन में रही… हम छह साल से एक ही घर में हैं, पर हमारे बीच अपनापन कभी क्यों नहीं आया?”

साक्षी ने हल्की मुस्कान के साथ गहरी साँस ली।
“भाभी, सच कहूँ तो गलती मेरी ही थी — शायद नासमझी की वजह से।”

“कैसी गलती?”

“जब मैं इस घर में आई, सब मेरे लिए नए थे। मुझे समझने में वक्त लगा। ऊपर से माँजी हर बात में आपकी शिकायत करती थीं। कहती थीं कि ‘नंदिता को तो मायका और बाज़ार जाने के बहाने चाहिए, काम करने का मन ही नहीं है।’
मैंने भी वही सुन-सुनकर आपको गलत समझ लिया। मुझे लगता था कि आप घर के कामों से बचती हैं, जिम्मेदारियों से भागती हैं। और सच कहूँ तो भाभी, मैंने कभी खुद से जानने की कोशिश ही नहीं की कि सच्चाई क्या है।”

नंदिता चुपचाप सुनती रहीं।

“पर जब पिछले एक साल से मैं आपके साथ रहने लगी, तब समझ आया कि घर का असली आधार तो आप हैं। सुबह से रात तक आप बिना थके सबकी जरूरतें पूरी करती हैं। किसी मेहमान के आने पर सबसे पहले आपकी आवाज़ सुनाई देती है, कोई बीमार हो जाए तो आप पहले पहुँचती हैं।
और जब आप बीमार हुईं, तभी मुझे समझ आया कि इस घर का पहिया आपके बिना चलता ही नहीं।”

नंदिता की आँखें भीग गईं।
“तो फिर साक्षी, अब सोचती हो कि मैं वाकई काम से बचती थी?”

साक्षी ने सिर हिलाया —
“नहीं भाभी, अब लगता है कि मैंने आपको बहुत गलत समझा। आप भी तो इंसान हैं, आपको भी थकान, सिरदर्द, मायके की याद या थोड़ा अकेलापन महसूस हो सकता है।
आपका मायके जाना, बाज़ार जाना — ये सब आपकी खुद की साँसें लेने का वक्त था, और मैंने उसे स्वार्थ समझ लिया।”

कमरे में कुछ पल के लिए सन्नाटा छा गया।
फिर नंदिता ने मुस्कुराकर कहा —
“साक्षी, देर लगी, पर तुमने जो समझा, वही सबसे बड़ी कमाई है। रिश्ते समझ से ही गहरे होते हैं, सेवा या शब्दों से नहीं।”

साक्षी ने उनके पैर छूए और बोली —
“भाभी, अब मैं चाहती हूँ कि आप थोड़ा आराम करें। आगे से घर की ज़िम्मेदारी हम दोनों साथ बाँटेंगे।”

उस दिन के बाद घर का माहौल बदल गया।

अब नंदिता सुबह चाय बनातीं, साक्षी नाश्ता तैयार करती। पूजा का काम दोनों मिलकर करतीं।
शाम को छत पर बैठकर दोनों साथ बातें करतीं — कभी बच्चों की पढ़ाई की, कभी नई रेसिपी की, तो कभी ज़िंदगी की बातों की।

ससुरजी ने एक दिन मुस्कुराकर कहा —
“लगता है घर की दो पटरियाँ अब साथ-साथ चल रही हैं।”

और सचमुच, घर में शांति और हँसी का संगीत गूंजने लगा।

एक रात जब साक्षी कमरे में लौट रही थी, तो नंदिता ने पुकारा —
“साक्षी, ज़रा इधर आओ।”
वो आई तो देखा कि नंदिता ने एक छोटा-सा बक्सा खोला और एक सुनहरी चूड़ी निकालकर उसके हाथ में रख दी।

“ये मेरी सासू माँ ने मुझे दी थी, जब मैंने पहली बार पूरे घर की जिम्मेदारी संभाली थी। अब इसे मैं तुम्हें दे रही हूँ — क्योंकि तुमने रिश्ते की असली ज़िम्मेदारी निभाई है, समझने की।”

साक्षी की आँखें नम हो गईं। उसने चूड़ी संभालकर पहनी और धीरे से बोली —
“भाभी, आपने मुझे बहुत बड़ा तोहफ़ा दिया — आपका विश्वास।”

दोनों के बीच का मौन उस पल शब्दों से ज़्यादा गहरा था।

लेखिका 

( रेनू अग्रवाल )


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