छाँव के साथ एक टुकड़ा धूप

 सारंगा,सुश्वी को देखते ही उसे सुनाकर अपने दिल का उद्गार व्यक्त करने की कोशिश करता..एक ही कम्पनी में काम करते करते दोनो आपस में थोड़े बेतकल्लुफ़ तो थे, फिर भी बहुत समय तक सुश्वी, सारंगा की भावनाओं को नहीं समझने का नाटक करती रही थी...पर प्यार, ख़ुशी और खाँसी छुपाएँ नहीं छुपती.. सो वो खुद को सारंगा की गिरफ़्त से दूर  नहीं रख पाई..

 दोनों वयस्क और आर्थिक रूप से स्वतंत्र  थे, इसलिए परिवारों के विजातीय विरोध को झेलते हुए भी इन लोगों ने दोनों परिवारों को नज़रअंदाज़ कर कोर्ट मैरिज करने का निर्णय लिया था।

आज इनकी शादी के पाँच वर्ष हो चुके थे।इकलौता बेटा हर्षा भी दो साल का हो चुका था ।बच्चे को बड़ा करना एक चुनौती थी..पर चुनौती सिर्फ़ माँ के लिए थी,पिता घर में होता तो थोड़ी देर देख भाल करके अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री  समझ लेता, पर माँ अवैतनिक अवकाश पर रह कर चुनौती ही नहीं मातृत्व सुख को जी रही थी.. पर पिता,पितृत्व सुख तो दूर,हर पल सुश्वी को महसूस कराता कि वो कमा कर उसे और उसके बच्चे को पाल रहा है..सुश्वी को विश्वास नहीं होता ऐसा कैसे हो सकता है, कहाँ गया उसका सारंगा..जिसे उसने प्यार किया था? उसने समझाने की कोशिश भी किया था "सारंगा,थोड़े दिनों की बात है..छ: महीने बाद हर्षा को हम प्ले स्कूल में डाल देंगे.., फिर मैं भी ज्वायन कर लूँगी, सब परेशानी ख़त्म हो जाएगी...वैसे अभी भी कोई परेशानी नहीं है.. तुम्हारी सैलरी इतनी तो है ही कि हमारी अच्छे से गुजर हो सके.. आर्थिक तंगी तो सिर्फ़ मानसिक संकट है!"

सुश्वी की नसीहत ने तो सारंगा के ग़ुस्से को सातवें आसमान पे चढ़ा दिया था...उसने सुश्वी के गाल पे एक ज़ोर का तमाचा जड़ते हुए कहा था "अब तो हद ही कर दी...तुमने मुझे मानसिक रोगी तक कहना शुरू कर दिया..मानसिक रोगी हूँ तभी तो कम्पनी वालों ने मुझे प्रोन्नति दी है!" सुश्वी मानो आकाश से ही गिर गई हो..ऐसी बातें तो उसने सपने में भी नहीं सोचा था..

     सुश्वी ने अपना और हर्षा के कपड़े और ज़रूरी सामान सूटकेस में रख लिए थे..सारंगा के आते ही, उसे कॉफी , स्नैक्स देकर उसे निकल जाना था। मम्मी- पापा के पास जाने की हिम्मत तो थी नही..उसने अपनी अंतरंग सहेली अरुणिमा से बात कर ली थी।डोर बेल बजा,तुरंत उसने दरवाज़ा खोला... " क्या बात है, कहाँ जाना है ,तैयार बैठी हो?" सारंगा ने  पूछा! जवाब में सुश्वी चुप रह गयी थी... "अरे ये तो सूटकेस भी तैयार है.. कहाँ जाना है?"इसका जवाब भी उसने चुप्पी में ही दिया था!

सारंगा ने ही सुबह की बात याद कर थोड़ी संजीदगी दिखाता हुआ कहा था "सुश्वी ऐसी बातें तो पति पत्नी के बीच होती ही है..ऐसा निर्णय नहीं लो डार्लिंग!"

इसका जवाब उसने अपनी आग्नेय दृष्टि से दिया था...

'कहाँ जाओगी?'  सारंगा ने घबराई हुई आवाज़ में पूछा था।

'कहीं भी' उसने कहा।

"सुश्वी मैं दोस्तों के बहकावे में आकर पथभ्रमित हो गया था..प्लीज़ मुझे एक मौक़ा दो.. आगे ऐसा कभी नहीं होगा!" सारंगा ने अपने पुरूष अहंकार को किनारे रखते हुए लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा...

"अब कोई फ़ायदा नहीं है सारंगा" कहती हुई हर्षा को गोद में उठाकर, एक हाथ से सूटकेस खींचती हुई दरवाज़े की तरफ़ बढ़ गयी थी...आगे बढ़कर सारंगा ने उसका रास्ता रोका था...." सुश्वी,छाँव भरी ज़िन्दगी को तुम्हारे ताप की... एक टुकड़े धूप की ज़रूरत है.. हम कुछ ज़्यादा ही ठंढे हो गये थे!" हर्षा को उसकी गोद से लेकर सुश्वी के गले में हाथ डालकर थोड़ा सा बल लगाता हुआ अंदर ले कर आ गया...

         छाँव के साथ एक टुकड़ा धूप भी आवश्यक है.. ताकी ज़िन्दगी की गाड़ी गुनगुनी पटरियों से होती हुई आगे बढ़ती जाए!

-रंजना बरियार


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