नयी बहू की संगत

   महीनों की तैयारी, रिश्तेदारों की आवाजाही और शोर-गुल के बाद आज आखिर वह दिन आ गया था जब मालती देवी के लाडले बेटे अभिषेक की शादी संपन्न हो चुकी थी।

अब बहू सपना पहली बार इस घर की चौखट लाँघ रही थी। दरवाज़े पर आरती की थाल, कलश की पूजा और मालती देवी की आँखों में छलकता स्नेह—सब कुछ एक सपनों जैसा दृश्य था। मालती देवी बार-बार मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद कर रही थीं कि उन्होंने उनके बेटे के जीवन में इतनी संस्कारी, सुशील, और प्यारी लड़की भेजी है।

अगली सुबह जब सूरज की पहली किरण खिड़की से झाँकी, तो घर के हर कोने में शांति थी। शादी की थकान सबके चेहरों पर झलक रही थी। पर मालती देवी तो मानो नींद में भी मुस्कुरा रही थीं। आज उनकी नई बहू का पहला दिन था। वे जल्दी उठीं, नहा-धोकर पूजा की थाली सजाई और मन ही मन बोलीं—
"आज घर में नयी लक्ष्मी आई है, इसका पहला दिन मंगलमय होना चाहिए।"

सपना धीरे-धीरे कमरे से बाहर निकली। सिर पर आँचल, आँखों में संकोच, और हाथ में पूजा की थाली। सास ने उसे देखकर स्नेह से कहा,
"अरे बहू! अब तू आराम कर ले। शादी-ब्याह में कितनी थकान हुई होगी। रसोई का कोई काम मत करना, अभी महीने भर बस देखना। मैं कैसे करती हूँ, फिर जब समझ जाए तो जैसे चाहे वैसे करना।"

सपना ने आदर से सिर झुका दिया। उसके मन में सास के लिए सम्मान और बढ़ गया। उसने सोचा—"कितनी समझदार हैं अम्मा, एकदम मां जैसी!"

कुछ ही देर बाद मालती देवी रसोई में पहुँचीं। बरसों से यही जगह उनकी दुनिया थी—जहाँ वे अपनी भावनाएँ, प्रेम और अपनापन हर पकवान में घोल देती थीं। आज तो उनके हाथों में जैसे संगीत उतर आया था। उन्होंने पराठे बेलते-बेलते पुराने फिल्मी गीत गुनगुनाना शुरू कर दिया—
“मेरे बेटे की दुल्हन आई है रे…”
उनकी आवाज़ में इतनी मिठास थी कि लगता था दीवारें भी मुस्कुरा रही हों।

फिर अचानक, चिमटा और कलछी हाथ में लेकर वे झूम उठीं। मसालों की महक के बीच वे थिरकती हुई हँसने लगीं। उनकी आँखों में वर्षों की तन्हाई का सारा स्नेह भर आया था—अब उन्हें लगा, “घर में रौनक लौट आई है।”

इधर सपना अपने कमरे में बैठी थी। थकान के बावजूद उसके मन में अजीब-सी बेचैनी थी। सास ने उसे रसोई से दूर रहने को कहा था, पर उसे लगा कि घर की बड़ी होकर अम्मा सारा काम अकेली क्यों करें। वह पानी लेने उठी, और जब रसोई के दरवाजे पर पहुँची तो सामने का दृश्य देखकर ठिठक गई।

मालती देवी मुस्कुराती हुई रसोई में झूम रही थीं—एक हाथ में कलछी, दूसरे में परात, होंठों पर गाना और आँखों में चमक।
सपना के होठों से अनायास हँसी फूट पड़ी। उसने सोचा—"अरे, ये तो कितनी प्यारी हैं! जैसे कोई बच्ची अपनी गुड़िया से खेल रही हो!"

वह चुपचाप भीतर गई, और बिना कुछ बोले एक थाली उठाकर सब्ज़ी काटने लगी। मालती देवी चौंकीं, “अरे बहू! मैंने कहा ना, तू बस देखना—काम मत करना अभी।”

सपना बोली, “अम्मा, देखने से ज़्यादा सीखने में मज़ा तब आता है जब साथ काम किया जाए। और फिर, अगर मैं आपकी संगत में रहूँगी तो जल्दी सीख जाऊँगी ना।”

मालती देवी उसकी बात सुनकर हँस पड़ीं। “वाह! ये हुई न बात मेरी बहू की।”

अब दोनों मिलकर रसोई में जुट गईं। मालती देवी ने उसे समझाया कि कैसे दाल में बस एक चुटकी ही हींग डालनी चाहिए, कैसे रोटी को तवे पर पलटने का सही समय पहचानना चाहिए।
सपना सब ध्यान से सुनती, कभी सवाल करती, कभी सास की नकल उतारकर हँस देती।

कुछ देर बाद दोनों इतनी हँसी-मज़ाक में खो गईं कि वक्त का ध्यान ही नहीं रहा। रसोई से आती सुगंध और हँसी की गूँज घर के हर कोने में फैल गई।

बाहर ड्राइंग रूम में बैठे अभिषेक ने आवाज़ लगाई—
“माँ, नाश्ता हो गया क्या?”
अंदर से दो हँसते स्वर एक साथ गूँजे—“बस बेटा, अभी आया!”

वह मुस्कुराया—"लगता है अब तो रसोई में माँ को सच्ची साथी मिल गई है।"

दिन बीतते गए। धीरे-धीरे सपना रसोई के हर काम में माहिर होती गई। मालती देवी अब बस देखतीं और मन-ही-मन खुश होतीं कि उनकी बहू घर को उसी प्यार से संभाल रही है जैसा उन्होंने वर्षों तक किया।

एक दिन मालती देवी ने कहा—
“बहू, अब रसोई तू संभाल ले। मैंने तो सारा जीवन यही किया, अब तेरी बारी है।”
सपना ने मुस्कुराकर कहा—
“अम्मा, रसोई आपकी है, मैं तो बस आपकी संगत हूँ। जब तक आप हैं, मैं सीखती रहूँगी।”

मालती देवी की आँखें भर आईं। उन्होंने सपना का माथा चूम लिया—
“बेटी, आज तूने वो रिश्ता बना दिया जो खून के रिश्तों से भी गहरा होता है—अपनापन।”

एक दिन रात को जब दोनों छत पर बैठी थीं, । मालती देवी बोलीं,
“देख बहू, ज़िंदगी में साथ काम करने से रिश्तों में मिठास बढ़ती है। मैं चाहती थी तू आराम करे, लेकिन तूने जो साथ दिया, उसने मेरा दिल जीत लिया।”

सपना बोली,
“अम्मा, माँ-बेटी का रिश्ता जन्म से नहीं, मन से बनता है। मुझे लगता है, आज मेरा दूसरा जन्म हुआ है—आपकी बहू नहीं, आपकी बेटी बनकर।”

मालती देवी ने मुस्कुराकर कहा,
“और मैं भी आज फिर जवान हो गई हूँ… जब तूने थाली और चम्मच लेकर मेरी संगत दी थी।”

दोनों खिलखिला पड़ीं। ऊपर चाँद मुस्कुरा रहा था—जैसे जानता हो कि इस घर में अब एक नहीं, दो  दिल एक साथ धड़कते हैं।
रिश्तों की मिठास “रोज़मर्रा के साथ” से बनती है, “दूरी के आदर” से नहीं। सास-बहू के बीच अगर संवाद, स्नेह और थोड़ी-सी संगत हो, तो घर अपने आप मंदिर बन जाता है।

लेखिका :: इरा जौहरी 


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ