नई शुरुआत

 सुबह का वक्त था पर मेरे दिल में बेचैनी थी। कल ही खबर आई थी कि मेरी जेठानी—यानी जीजी—की तबियत कुछ ठीक नहीं है। सोचा, आज उनसे मिलने चलूँ। मन में हल्का-सा अपराधबोध भी था; पिछले कई महीनों से उनसे मिलने का मौका ही नहीं मिला था। सो सवेरे-सवेरे पूजा करके मैं उनके घर की ओर चल दी।

रास्ते भर याद आ रही थी जीजी की पुरानी आदतें—कितनी सख्त थीं वे। घर में एक-एक बात पर ध्यान देने वाली। बहू ज़रा देर से उठे तो नाराज़, अगर पल्ला सिर से खिसक जाए तो ताने की बरसात। उनके शब्दों के तेवर इतने तीखे होते कि नई-नई आई उनकी बहू—रीमा—कई बार तो आँसुओं में भीग जाती थी। मैं कई बार सोचती, "हे भगवान, इस घर में बहू बनकर रहना भी किसी तपस्या से कम नहीं।"

पर आज जब मैं उनके घर पहुँची, तो जो दृश्य देखा, उस पर यकीन करना मुश्किल था।

दरवाज़ा आधा खुला था। अंदर से हँसी की हल्की आवाज़ें आ रही थीं। मैंने धीरे से झाँककर देखा—कमरे के बीचों-बीच बिस्तर पर जीजी लेटी हुई थीं। उनके चेहरे पर थकान थी, पर अजीब-सी शांति भी। और उनके पास बैठी वही रीमा थी—वो बहू, जिसे जीजी ने कभी चैन से जीने नहीं दिया था। उसके हाथ में दवा की शीशी थी, और बड़ी तल्लीनता से वह उन्हें दवा पिला रही थी। फिर बड़ी कोमलता से उनके बालों को सहलाया, कंधे को सहारा दिया, और बोली,
“ज़रा सिर पीछे टिका लीजिए अम्मा, अब आराम मिलेगा।”

जीजी की आँखों में कृतज्ञता तैर रही थी। मैंने सोचा—क्या यही वो औरत है जो कभी इसी रीमा को ‘आलसी’ और ‘लापरवाह’ कहा करती थी?

थोड़ी देर बाद रीमा उठकर रसोई में चली गई। मैंने भीतर कदम रखा तो जीजी मुझे देखकर मुस्कुरा दीं। बोलीं—“अरे, तुम आ गईं! बहुत दिन बाद आई हो।”
मैंने उनके पैर छुए और बोली, “कैसी तबियत है आपकी?”
“अब ठीक हूँ बहन, रीमा है ना, सब संभाल लेती है।”

उनकी आवाज़ में अब वो रौब नहीं था जो पहले झलकता था। एक अलग-सी मिठास थी। मैं मन ही मन सोचने लगी—ये वही जीजी हैं जो पहले अपनी बहू की एक साँस भी गिनती थीं?

इतने में रीमा वापस आ गई। उसके हाथ में गर्म दूध का गिलास था। उसने जीजी को बड़े स्नेह से पकड़ा और धीरे से कहा, “अम्मा, थोड़ा दूध पी लीजिए, फिर दवा ले लीजिएगा।”
जीजी ने बिना किसी झिझक के गिलास थाम लिया। रीमा ने सिरहाने का तकिया ठीक किया, और कमरे की खिड़की से आती धूप को परदे से ढक दिया ताकि अम्मा की आँखों में तेज़ न पड़े।

मैंने देखा, इस बार वो काम सिर्फ “कर्तव्य” से नहीं, बल्कि “प्यार” से कर रही थी।

मैं कुछ देर चुपचाप सब देखती रही। तभी बाहर से आवाज़ आई—
“माँ,  ज़रा यहाँ आइए!”
ये आवाज़ रीमा के बेटे की थी—आदित्य, जिसकी शादी कुछ ही महीनों पहले हुई थी। उसके साथ उसकी नयी नवेली पत्नी, नेहा, भी थी।

रीमा ने अम्मा को देखकर कहा, “आप ज़रा आराम करिए, मैं देखती हूँ।”
वो बाहर निकली, और मैं भी उसके पीछे-पीछे आ गई।

ड्राइंग रूम में जो दृश्य देखा, वह तो और भी चौंकाने वाला था।

नेहा—यानी रीमा की नई बहू—अपने ससुराल में ऐसे बैठी थी जैसे अपने ही घर में हो। सिर पर पल्लू नहीं, आरामदायक कुर्ते में, हाथ में मोबाइल, और रीमा उसके बगल में बैठी खिलखिला रही थी। दोनों कुछ बात कर रही थीं, बीच-बीच में हँस पड़तीं।

मैं ठिठक गई। मेरे ज़ेहन में पुराने दृश्य घूमने लगे—वही रीमा, जिसके सिर से पल्लू ज़रा-सा सरके तो जीजी पूरे घर में हंगामा कर देती थीं। और आज, उसकी बहू बिना पल्लू के उसके साथ ऐसे बैठी है जैसे दोनों सखियाँ हों!

मुझे यह सब कहाँ हज़म होने वाला था? मेरा मन एकदम बेचैन हो उठा। मैं अपने आप को रोक न सकी और तेढ़ी नज़र से बहू को घूरते हुए बोली,
“बहू, ये क्या? तुम्हारी बहू के सिर पर पल्लू नहीं है? तुम तो खुद कभी बिना पल्लू के दिखती नहीं थीं, और अब ये आज़ादी?”

रीमा ने मेरी ओर देखा, मुस्कुराई, और शांत स्वर में बोली—
“काकीजी, मैं आप लोगों की बहू थी, जैसा आप सबने चाहा वैसी रही। अब ये मेरी बहू है, इसमें जो सहज होगा, वैसी रहेगी।”

उसकी आवाज़ में कोई तीखापन नहीं था, बस एक गहरा आत्मविश्वास था।

मैं कुछ पल के लिए अवाक् रह गई। यह वही रीमा थी जो पहले हर बात पर चुप हो जाती थी, जो कभी मुँह खोलकर जवाब नहीं देती थी। आज उसके शब्दों में आत्मा की दृढ़ता थी।

मैं बस उसका मुँह ताकती रह गई।

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद नेहा बोली,
“माँ सच कहती हैं, काकीजी। उन्होंने कभी मुझे कुछ करने के लिए मजबूर नहीं किया। बस कहा कि घर को घर समझो। जैसे अच्छा लगे वैसे रहो। बस सबके लिए थोड़ा स्नेह रखना, यही सबसे बड़ी परंपरा है।”

रीमा ने मुस्कुराकर नेहा का हाथ थाम लिया। दोनों की आँखों में स्नेह और सम्मान की ऐसी झलक थी जिसे देखकर मन भर आया।

मैंने अनायास कहा,
“रीमा, तू तो बहुत बदल गई है। और तेरे घर का रंग-ढंग भी। जीजी के ज़माने में यह सब सोच पाना भी मुश्किल था।”

रीमा ने कहा,
“काकीजी, वक्त के साथ रिश्ते भी तो बदलने चाहिए। जब मैं आयी थी, तब मैं डर के साए में रही। जो गलती मुझसे हुई, मैं चाहती हूँ कि मेरी बहू उससे मुक्त रहे। मुझे समझ आ गया कि नियमों से घर नहीं चलता, प्रेम और सम्मान से चलता है।”

मैं चुप हो गई। भीतर कहीं कुछ पिघल गया।

शाम को जब मैं विदा होने लगी तो जीजी कमरे से बाहर आईं। उनके हाथ में वही छड़ी थी, पर चाल में ठहराव था। उन्होंने रीमा को गले लगाते हुए कहा,
“बेटी, तूने मुझे नया जीवन दिया। जब तू आई थी, तब मैं सोचती थी बहुएँ बस घर का बोझ होती हैं। पर आज लगता है, बहुएँ ही घर की साँस होती हैं।”

रीमा की आँखें नम हो गईं। उसने अम्मा के पैर छुए और बोली,
“अम्मा, मैंने आपसे ही सीखा है कि परिवार को कैसे बाँधकर रखना चाहिए। बस अब तरीका थोड़ा बदल गया है।”

मैंने जीजी और रीमा को साथ देखा—एक सास और बहू, जो अब सास-बहू नहीं, बल्कि माँ-बेटी जैसी लग रही थीं।

घर से निकलते वक्त मेरा मन भारी था। बाहर सूरज ढल रहा था, पर भीतर एक नई रोशनी जल उठी थी—समझ की, परिवर्तन की।

रास्ते में मैंने सोचा—
कितना अजीब है यह जीवन! पहले वही रीमा अपने हक के लिए चुप थी, अब किसी और के हक के लिए बोल रही है। यही तो असली बदलाव है—जब हम दूसरों के जीवन को अपने पुराने दर्दों से मुक्त करने लगते हैं।

मैंने मन ही मन कहा,
“रीमा, तू तो सच में अपने नाम की तरह है—रीमा, यानि रेशम। वक्त ने तुझे झकझोरा, पर तूने अपने धागे को नर्म और मजबूत दोनों बनाए रखा।”

उस शाम जब मैं घर लौटी, तो लगा जैसे मेरे भीतर भी कुछ बदल गया हो। मैंने अपनी बहू को आवाज़ दी,
“शालिनी, बेटा, जरा इधर आना...”
वो डरते-डरते आई।
मैंने उसके सिर से आँचल हटाया, उसके बाल सहलाए और कहा,
“अब तू जैसे सहज रहे, वैसे रहना। घर तेरा भी है।”

वो हैरान होकर मेरी ओर देखने लगी, और फिर मुस्कुरा दी।

शायद आज सच में एक नई शुरुआत हुई थी—सिर्फ रीमा के घर में नहीं, मेरे दिल में भी।

मूल लेखिका 

इरा जौहरी 


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