रात के गहरे सन्नाटे में सावित्री देवी अचानक नींद से जाग उठीं। माथे पर पसीना था, सांसें तेज़ चल रही थीं। उन्होंने घड़ी देखी—रात के तीन बज रहे थे। वह बेचैन होकर उठीं, पानी पिया, लेकिन दिल की धड़कनें शांत नहीं हो रही थीं। फिर वही सपना... वही भयावह दृश्य—उनकी बेटी नंदिता किसी ऊँची इमारत की छत पर खड़ी थी और रो रही थी। सावित्री चीखती हुई जाग उठीं, “नंदू!”
पिछले कुछ दिनों से उन्हें यही सपना बार-बार आ रहा था। शुरू में उन्होंने इसे मन का वहम समझा, लेकिन अब यह बेचैनी बढ़ती जा रही थी।
सुबह उठते ही उन्होंने बेटी को फोन किया, “नंदू, कैसी हो बेटा? आवाज़ कुछ थकी लग रही है।”
“कुछ नहीं मां, बस ऑफिस का थोड़ा स्ट्रेस है,” नंदिता ने बनावटी हंसी के साथ कहा।
“पक्का? कोई बात छुपा तो नहीं रही?”
“अरे नहीं मां, आप चिंता मत करो, मैं बिल्कुल ठीक हूं।”
लेकिन सावित्री को उस हंसी में दर्द की झलक साफ महसूस हुई। मां का दिल कुछ और ही कह रहा था।
तीन दिन बाद सावित्री बिना बताए बेटी के शहर पहुंच गईं। जैसे ही उन्होंने दरवाज़ा खोला, उन्हें लगा कि यह वही घर है, लेकिन उसमें अब गर्माहट नहीं बची। दीवारों पर सजे महंगे फोटो, कांच के शोपीस तो थे, पर नंदिता की आंखों की चमक गायब थी।
“मां, आप बिना बताए कैसे आ गईं?” नंदिता ने आश्चर्य से पूछा।
“तेरे चेहरे ने बुलाया बेटा,” सावित्री ने कहा और बेटी के पास बैठ गईं।
करीब से देखा तो नंदिता की आंखों के नीचे गहरे काले घेरे थे। चेहरा फीका पड़ गया था।
“कुछ तो है, नंदू। तू खुश नहीं लगती। बता क्या बात है?”
नंदिता ने नज़रें चुराईं, “मां, अब आपसे क्या छुपाऊं? मैं थक गई हूं। हर दिन, हर पल... बस दिखावे में जी रही हूं।”
सावित्री ने उसका हाथ थामा, “क्या सच में सब ठीक नहीं है?”
और तभी नंदिता के भीतर का बांध टूट गया। आँसुओं के साथ सारे दर्द बह निकले।
“मां, मैं अब और नहीं सह सकती। मेरा पति अर्जुन अब मुझसे बात तक नहीं करता। रोज़ देर रात ऑफिस से लौटता है और अगर मैं कुछ पूछ लूं तो कहता है—‘प्लीज़, मुझे परेशान मत करो।’ शादी के तीन साल बाद भी हम वैसे नहीं रहे जैसे पहले थे। पहले उसने कहा था—‘मुझे तेरे साथ पूरी ज़िंदगी बितानी है’, अब कहता है—‘शादी तो गलती थी।’”
सावित्री के दिल में जैसे किसी ने चाकू चला दिया हो।
“पर क्यों बेटा? तूने कुछ कहा उससे?”
“कहती हूं तो सुनता ही नहीं। अब तो साफ कह दिया है कि वो किसी और को पसंद करता है। मुझसे तलाक चाहता है।”
नंदिता के शब्दों ने हवा में खामोशी घोल दी। सावित्री कुछ क्षण स्तब्ध बैठी रहीं।
“और तेरे ससुराल वाले?”
“मां, सासू मां ने तो मुझसे रिश्ता तोड़ लिया है। कहती हैं—‘जो बहू अपने पति को खुश नहीं रख सकती, उसका हमारे घर में कोई स्थान नहीं।’”
नंदिता की सिसकियाँ रुक नहीं रही थीं।
“मां, अब मैं क्या करूं? मेरा तो सब कुछ खत्म हो गया। जीने की कोई वजह नहीं बची।”
सावित्री ने दृढ़ स्वर में कहा, “बेटा, जीने की वजह बाहर मत ढूंढ, अपने भीतर ढूंढ। जब तुझे पैदा किया था, तो तू ही मेरी वजह थी जीने की। अब मैं तुझे ऐसे हारने नहीं दूंगी।”
कुछ पल बाद दोनों बालकनी में बैठे थे। हवा में शाम की ठंडक थी।
सावित्री ने कहा, “नंदू, तू जानती है, तेरे पिता की मौत के बाद मैं कैसे जिंदा रही? लोगों ने कहा—‘अब तो सब खत्म हो गया।’ लेकिन मैंने खुद को संभाला। मैंने गांव की औरतों को सिलाई सिखाना शुरू किया। धीरे-धीरे वो मेरे परिवार जैसी बन गईं। मैंने अपना अकेलापन बाँट लिया। तू भी कर सकती है, अगर तू चाहे।”
“पर मां, मैं किसके लिए जियूं?”
“अपने लिए, उन औरतों के लिए जो तेरे जैसी परिस्थितियों में हैं। तुझे पता है, जब मैं विधवा हुई थी तो मुझे भी मरने का मन हुआ था। पर मैंने सोचा—अगर मैं खत्म हो गई, तो तू कैसे बचेगी? तभी समझ आया, जो औरों को रोशनी देती है, उसे खुद बुझना नहीं चाहिए।”
सावित्री के शब्द जैसे किसी ठंडी हवा की तरह नंदिता के मन में उतरने लगे।
अगले दिन सावित्री ने नंदिता को पास के एनजीओ में ले गईं, जहां औरतों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए कोर्स सिखाए जाते थे।
सावित्री ने कहा, “देख, यहां बहुत सी महिलाएं हैं जिनकी कहानी तेरे जैसी है। इन सबने भी बहुत कुछ खोया है, लेकिन अब ये खुद दूसरों को संभाल रही हैं।”
वहां एक युवती, कविता, महिलाओं को ऑनलाइन ट्यूशन देने का प्रशिक्षण दे रही थी।
नंदिता ने पहली बार मुस्कुराते हुए कहा, “मां, ये तो मैं भी कर सकती हूं। मैं पढ़ी-लिखी हूं।”
“तो फिर शुरू कर दे बेटा।”
नंदिता ने वही किया। अगले ही हफ्ते उसने बच्चों को ऑनलाइन पढ़ाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे उसे आत्मविश्वास लौटने लगा। हर क्लास के बाद उसे अपने भीतर एक नई ताकत महसूस होती।
दो महीने बाद अर्जुन के वकील ने तलाक के कागज़ भेजे। नंदिता ने कागज़ देखे, पर अब उसके चेहरे पर डर नहीं था। उसने कागज़ पर हस्ताक्षर किए और कहा, “अब मैं तुम्हारी बंदिश नहीं, अपनी आज़ादी हूं।”
सावित्री ने मुस्कुराते हुए कहा, “बेटा, तू अब सच में मेरी बेटी बन गई है—जो दर्द से नहीं, हिम्मत से लड़ती है।”
नंदिता अब एनजीओ में स्थायी सदस्य बन गई थी। वह उन महिलाओं को ऑनलाइन क्लास लेना सिखाती थी जो घर से बाहर नहीं जा सकती थीं। उसका नाम अब इलाके में जाना जाने लगा था।
एक दिन सावित्री का फोन बजा। दूसरी तरफ अर्जुन की मां थी।
“भाभी जी, नंदिता कैसी है?”
“बहुत अच्छी है।”
“हमसे गलती हो गई। हमने उसे कभी समझा नहीं। अर्जुन अब पछता रहा है। वो नंदिता से माफी मांगना चाहता है।”
सावित्री ने शांत स्वर में कहा, “माफी की ज़रूरत नहीं, उसने उसे अपने कर्मों से माफ कर दिया है। अब नंदिता अपने लिए जीती है।”
कुछ महीनों बाद एनजीओ ने नंदिता को सम्मानित किया—‘आत्मनिर्भर नारी अवार्ड’ से।
मंच पर जब उसने भाषण दिया, तो उसकी आवाज़ में सच्चाई की ताकत थी—
“एक वक्त था जब मैं सोचती थी कि मेरा जीवन खत्म हो गया। पर आज मैं जानती हूं कि कोई भी तूफान उस औरत को नहीं डुबो सकता जो खुद अपने लिए किनारा बन जाए। मेरी मां ने मुझे सिखाया—प्यार खोकर नहीं, खुद को पाकर जियो।”
नीचे बैठी सावित्री की आंखों से खुशी के आँसू बह रहे थे।
वह सोच रही थीं—सपनों में जो बेटी मर रही थी, आज वही ज़िंदा होकर दूसरों को जीना सिखा रही है।
रात को दोनों साथ बैठे चाय पी रहे थे।
सावित्री ने कहा, “देख नंदू, अब मुझे बुरे सपने नहीं आते।”
नंदिता ने मुस्कुराकर कहा, “क्योंकि अब आपकी बेटी हारने के लिए नहीं, लड़ने के लिए जी रही है।”
हवा में ठंडक थी, पर उस रात मां-बेटी के दिलों में एक नई गर्माहट थी—दर्द से जन्मी हिम्मत की।
अब दोनों का जीवन किसी कहानी की तरह था—जहां दुख का अंत, जीवन की नई शुरुआत बन गया था।
मूल लेखिका
बीना शर्मा
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