राघव जी अपनी पुरानी लकड़ी की कुर्सी पर बैठे अख़बार के आख़िरी पन्ने तक पहुँच चुके थे, लेकिन पढ़ने में उनका मन बिल्कुल नहीं लग रहा था। आधी नज़रें अक्षरों पर थीं और आधी अपने ही मन के भीतर उठती आशंका पर।
उन्हें लग रहा था कि उनका बेटा उनसे कुछ छुपा रहा है।
उन्होंने अख़बार मोड़कर रखा और अपनी पत्नी सुधा को रसोई से आवाज़ दी —
“सुधा, तुमने कुछ नोटिस किया? हमारा आर्यन कुछ दिनों से बदल-सा गया है। लगता है, कुछ कहना चाहता है, पर कह नहीं पा रहा। मुझे तो डर लग रहा है कि कहीं नेहा और उसके बीच कुछ अनबन तो नहीं हुई।”
रसोई से आती हल्की हल्दी और घी की महक के बीच सुधा बाहर आईं। चेहरे पर गहरी सोच की लकीरें थीं।
“नहीं, ऐसा तो कुछ नहीं हुआ उन दोनों के बीच। पर हाँ…” उन्होंने धीमे-से कहा, “मुझे भी लग रहा है कि वो हमसे कुछ छुपा रहे हैं। नेहा भी अजीब-सी चुप हो गई है पिछले कुछ दिनों से।”
राघव जी ने गहरी साँस ली।
उन्हें रिटायर हुए पाँच साल हो चुके थे। जीवन भर की कमाई से बनाया दो मंज़िला घर, और उसके साथ उनका छोटा-सा खुशहाल परिवार — पत्नी सुधा, इकलौता बेटा आर्यन, बहू नेहा और दो छोटे-छोटे पोते— आठ साल का आदित्य और पाँच साल की काव्या।
जीवन का हर दिन एक सुंदर लय में बह रहा था। पर पिछले एक हफ्ते से कुछ अजब-सी खामोशी पूरे घर में तैर रही थी।
सुधा ने घड़ी की ओर देखा — पाँच बज चुके थे।
मशीन की तरह हर रोज़ की तरह वह चाय का पानी चढ़ाने लगीं। नेहा ने भी हल्का-फुल्का नाश्ता निकाल लिया और हमेशा की तरह मुस्कुराकर पुकारा—
“पापा जी, चाय तैयार है।”
“हाँ, आता हूँ… और बच्चों के लिए हॉर्लिक्स बनाया?”
“जी पापा जी,” नेहा ने धीरे से जवाब दिया, पर उसकी आवाज़ में पहले वाली चमक नहीं थी।
राघव जी ने अख़बार उठाया पर फिर रख दिया।
“नेहा, आर्यन की भी चाय बना देना। आजकल पता नहीं क्यों इतना जल्दी आ जाता है ऑफिस से।”
नेहा हिचकिचाई—
“जी… पता नहीं पापा जी। शायद कुछ जरूरी काम हो।”
उसी समय दरवाज़ा खुलने की आवाज़ आई।
आर्यन घर में दाखिल हुआ। चेहरे पर थकान और एक अनकहा बोझ साफ़ दिख रहा था।
सुधा ने तुरंत पूछा —
“बेटा, सब ठीक है? आज इतनी जल्दी?”
आर्यन के होंठ हल्के से काँपे, पर उसने बस सर हिलाया —
“हाँ माँ, बस… काम थोड़ा कम था।”
पर उसके जवाब में छुपी बेचैनी सुधा की नज़रों से बच नहीं पाई। वह उसके पास आईं, उसके कंधे पर हाथ रखा और कह बैठीं—
“कुछ परेशान हो? तुम हमसे कुछ कहना चाहते हो?”
आर्यन की आँखें अचानक नम हो उठीं।
वह कई दिनों से इस पल से डर रहा था — माँ-बाप की उम्मीदों को तोड़ते हुए खुद को बहुत छोटा महसूस कर रहा था।
“माँ…” वह धीमी आवाज़ में बोला, “आपकी क्या राय है? अगर कोई बड़ा मौका मिले… विदेश में… तो क्या उसे छोड़ देना चाहिए?”
सुधा ने आँसू छुपाते हुए मुस्कुराने की कोशिश की—
“मौका बड़ा हो या छोटा, लेकिन वह तुम्हारे भविष्य के लिए है, यह सबसे अहम बात है।”
आर्यन ने उनके हाथ थाम लिए—
“लेकिन आप लोग यहाँ अकेले रह पाएँगे? मेरा मन ये स्वीकार नहीं कर पा रहा, माँ…”
सुधा ने धीरे से सिर हिलाया।
“हम ठीक रहेंगे बेटा। तीन ही तो साल की बात है। समय ऐसे ही निकल जाता है। तुम हमारे लिए बहुत कुछ कर चुके हो। अगर तुम्हें विदेश जाने से तरक्की मिलेगी, तो ज़रूर जाओ।”
उनकी आवाज़ आखिर भर्रा ही गई।
राघव जी भी चुपचाप पास आ खड़े हुए और बेटे के कंधे पर हाथ रखा—
“तुम्हारे जाने से घर खाली नहीं हो जाएगा। तुम्हारी यादें हैं, तुम्हारी खुशियाँ हैं… और हम दोनों एक-दूसरे का साथ हैं। तुम जाओ बेटा। आगे बढ़ो।”
आर्यन ने सिर झुकाकर “हाँ” कहा, पर उसके मन में तूफ़ान कुछ और ही था।
रात को लगभग दस बजे, बच्चों को सुलाकर नेहा कमरे में आई।
आर्यन बालकनी में खड़ा शहर की रोशनियों को देख रहा था।
“अब तो बोल दो,” नेहा ने धीरे से कहा।
आर्यन चौंका—
“क्या?”
“वही, जो असली बात है। अमरीका जाने का नहीं… वहाँ की सिटिजनशिप लेने का, हमेशा के लिए बस जाने का। यह बात तुम कब तक टालते रहोगे?”
आर्यन ने आँखें बंद कर लीं।
“मैं कैसे कह दूँ? माँ-बाप को तीन साल की जुदाई समझाना ही मुश्किल है… और मैं उन्हें बताऊँ कि यह जुदाई शायद हमेशा की हो सकती है? मैं नहीं कर पा रहा ये।”
नेहा उसके पास आकर बोली—
“लेकिन सच देर से बताने से चोट और गहरी लगेगी। उनसे छुपाना ठीक नहीं है। वे तैयार रहेंगे तो तकलीफ़ कम होगी।”
आर्यन ने धीरे से कहा—
“मैं उन्हें दोहरा झटका नहीं दे सकता नेहा। पहले विदेश जाने का, और फिर हमेशा के लिए वहीं बसने का… मुझे डर लगता है कि कहीं उनके दिल को ठेस न लगे।”
नेहा ने उसका हाथ पकड़ा—
“तुम उन्हें कमज़ोर समझ रहे हो। वे उतने ही मजबूत हैं जितने तुम हो। आखिर हम उसी परिवार के हैं, जहां सच को छुपाया नहीं, सामना किया जाता है।”
आर्यन ने उसकी ओर देखा।
सच में, उसके माता-पिता ने हर कठिनाई का सामना मुस्कुराकर किया था—अपनी ज़रूरतों को पीछे रखकर उसे आगे पढ़ाया था, हर मोड़ पर उसका साथ दिया था।
पर अगले दो दिन वह फिर चुप ही रहा। बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
तीसरे दिन शाम को परिवार डाइनिंग टेबल पर बैठा था।
आदित्य अपनी कॉपी लेकर आया—
“दादू, ये मैथ्स का सवाल नहीं हो रहा, आप समझा दो।”
राघव जी ने उसे गोद में बिठाया और हँसकर कहा—
“आओ, दादू बताते हैं। तुम तो मेरे चैंपियन हो।”
काव्या अपनी दादी से लिपटकर बोली—
“दादी, कल मेरी ड्राइंग कंपटीशन है, मुझे नई कलर पेंसिल चाहिए।”
सुधा ने हँसते हुए उसे गले लगाया—
“कल ले आएँगे, मेरी पेंटिंग क्वीन।”
इन छोटे-छोटे पलों को देखकर आर्यन के आँसू भर आए।
उसने सोचा — क्या मैं इनसे दूर रह पाऊँगा? क्या ये लोग मेरे बिना खुश रह पाएँगे?
रात को वह फिर बालकनी में बैठा था।
सुधा धीरे-धीरे चलती हुई उसके पास आईं।
“कुछ कहना है, बेटा?”
आर्यन का सब्र टूट गया।
“माँ… मैं सिर्फ तीन साल के लिए नहीं… शायद हमेशा के लिए जाना चाहता हूँ। वहाँ की सिटिजनशिप लेने का प्लान है। मैं चाहता हूँ कि बच्चे वहीं पढ़ें, हम वहीं भविष्य बनाएँ…”
सुधा ने कुछ पल चुप रहकर आसमान की ओर देखा।
फिर मुस्कुराईं, पर आँखें भर चुकी थीं—
“मैंने शुरुआत से ही महसूस किया था कि बात सिर्फ नौकरी की नहीं है। बात जाने की नहीं, जाने के बाद लौटकर न आने की है।”
आर्यन का सिर झुक गया—
“माँ… मैं आपको दुख नहीं देना चाहता था।”
सुधा ने उसके सिर पर हाथ फेरा—
“दुख तो होगा बेटा… पर क्या तुम्हारी खुशी और तरक्की से बड़ा कुछ है हमारे लिए? इंसान बच्चों को उड़ने के लिए ही पंख देता है… बाँधकर रखने के लिए नहीं।”
राघव जी भी धीरे-धीरे पास आ गए।
उनकी आवाज़ भारी थी—
“हम बूढ़े हैं, बेटा। आज नहीं तो दस साल बाद हमें तुम्हारे सहारे की जरूरत पड़ती। पर अगर तुम्हारा लक्ष्य बड़ा है, तो हम तुम्हें रोककर छोटा नहीं करेंगे।”
आर्यन रो पड़ा।
“पापा… हम आपको अकेला छोड़कर कैसे जाएँगे?”
राघव जी ने उसका चेहरा उठाया—
“अकेला? तुम्हारी माँ मेरे साथ है, मैं उसके साथ हूँ। और इस घर की हर दीवार में तुम्हारी हँसी और तुम्हारे बचपन की हर आवाज़ बसी है। अकेलापन तब होता है, जब मन खाली हो, बेटा… हमारे मन तुम्हारी यादों से भरे हैं।”
सुधा ने उसकी पीठ थपथपाई—
“वादा करो, चाहे दुनिया में कहीं रहो, हमसे रिश्ते की दूरी कभी मत आने देना। वीडियो कॉल हो, फोन हो, हर छोटी-बड़ी बात बताना…”
आर्यन ने गले लगाकर कहा—
“मैं वादा करता हूँ माँ… आप दोनों मेरे दिल में हमेशा रहेंगे।”
उस रात पहली बार उसने सुकून से साँस ली।
अगले कुछ हफ्तों में पासपोर्ट, वीज़ा, डॉक्यूमेंट—सबकी भागदौड़ शुरू हो गई।
सुधा और राघव जी बच्चों की पसंद की चीजें बनाने लगे।
काव्या अपनी दादी को सब बताती—
“दादी, वहाँ बर्फ गिरती है न? मैं स्नोमैन बनाऊँगी!”
आदित्य उत्साह से कहता—
“दादू, मैं वहाँ रोबोटिक्स सीखूँगा!”
राघव जी मुस्कुराते, पर अंदर कहीं एक टीस उठती।
फिर खुद को समझा लेते— बच्चों का भविष्य उज्ज्वल हो, यही तो चाहा था हमेशा।
नेहा अब खुलकर सुधा के साथ बैठती, उन्हें बताती कि वहाँ से नियमित बातें होंगी, वे हर महीने वीडियो कॉल करेंगे, और चाहें तो कुछ महीनों के लिए वहाँ भी आ सकते हैं।
धीरे-धीरे विदाई का डर स्वीकार में बदल गया।
अंततः वह सुबह आ गई जब परिवार एयरपोर्ट के लिए निकलना था।
गाड़ी के बाहर खड़े राघव जी और सुधा के चेहरे पर मजबूर मुस्कान थी।
आर्यन झुककर उनके पैर छूता है।
“असीम आशीर्वाद है हमारा,” राघव जी ने काँपती आवाज़ में कहा।
नेहा और बच्चों ने भी गले लगाया।
काव्या रोते हुए बोली—
“दादी, आप भी आना प्लीज़।”
सुधा ने उसे चूमते हुए कहा—
“ज़रूर बेटा, तुम्हें पेंटिंग सिखाने आएँगे।”
जब गाड़ी चली, सुधा ने आँसू पोंछे।
राघव जी ने उसका हाथ थाम लिया—
“हमने पंखों को उड़ना सिखाया था… अब उन्हें आसमान छूते देखते हैं।”
सुधा ने सिर उनके कंधे पर रख दिया।
“हाँ… और ये सोचकर दिल को सुकून है कि हमारे बच्चे खुश रहेंगे। अब यही हमारी सबसे बड़ी कमाई है।”
दोनों खड़े रहे, गाड़ी को आख़िरी मोड़ तक जाते देखते हुए।
कुछ दूर जाने के बाद सूरज की रोशनी फिर घर की खिड़कियों पर लौट आई।
उनका घर अब थोड़ा शांत था, थोड़ा खाली…
पर उनके दिल गर्व और प्रेम से भरे हुए थे।
क्योंकि बच्चों को उड़ते देखना… हर माँ-बाप की अंतिम और सबसे सुंदर खुशी होती है।
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