सुबह की हल्की धूप आँगन में फैल रही थी। कमलेश जी बरामदे की कुर्सी पर बैठे अख़बार पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन उनका ध्यान हर दो मिनट में दरवाज़े की ओर चला जाता।
“अब तक नहीं उठा? आज तो ऑफिस भी नहीं है,” उन्होंने धीरे से कहा।
“शायद देर रात तक काम कर रहा था,” — भीतर से चाय की ट्रे लाती सुधा बोलीं।
लेकिन उनके चेहरे पर चिंता की वह महीन लकीर साफ़ दिख रही थी, जो पिछले तीन महीनों से मोटी होती जा रही थी।
कारण था उनका बेटा — निखिल।
उनका इकलौता सहारा।
उनकी हर उम्मीद, हर भरोसा, इसी एक बेटे पर टिका था।
और अब वह विदेश जाना चाहता था।
“कनाडा की नौकरी का ऑफर आया है माँ,” निखिल ने एक शाम खामोशी तोड़ते हुए बताया था।
“बहुत अच्छी पोस्ट है। तनख्वाह दोगुनी। करियर के लिए बड़ा मौका है।”
सुधा ने जब यह सुना था, उनके हाथ से कड़ाही गिरते-गिरते रह गई थी।
कमलेश जी ने भी चश्मा उतार दिया था, जैसे उन्हें कुछ सुनाई ही न दिया हो।
“पर बेटा… वहाँ जाकर?” सुधा ने थरथराती आवाज़ में कहा।
“माँ, बस तीन साल का प्रोजेक्ट है,” निखिल बोला, पर उसकी आँखें कह रही थीं कि बात इससे भी बड़ी है।
सुधा ने पिता की तरफ देखा।
पिता ने बेटे की ओर,
और तीनों के बीच एक भारी-सी खामोशी बैठ गई।
उस दिन से लेकर अब तक, घर का हर कोना जैसे चुपचाप यह खबर सुन चुका था, पर किसी ने जोर से इस पर बात नहीं की थी।
बूढ़े माता-पिता का डर
सुधा अब पहले जैसी हँसमुख नहीं रहीं।
रात में दो बार उठ जातीं और बेटे के कमरे के बाहर खड़ी रहतीं।
कमलेश जी को भी अब नींद नहीं आती थी।
बूढ़ा शरीर था — दवाइयों से भरा। हृदय की परेशानी, जोड़ों का दर्द, और अकेलापन… जो किसी दवा से नहीं भर सकता था।
एक रात सुधा फट पड़ीं।
“निखिल हमें छोड़कर चला गया तो क्या होगा कमलेश जी? दिन भर तो आप मंदिर और अख़बार में लगे रहते। रात को? तब कौन होगा हमारे पास?”
कमलेश जी भी टूटे हुए स्वर में बोले,
“सुधा, मैंने जीवन भर यही चाहा कि हम बूढ़े हो जाएँ और बेटा साथ रहे। पर जमाना बदल गया है। बच्चे अब सपने लेकर जन्म लेते हैं, हम जैसे माँ-बाप नहीं रोक सकते।”
“तो क्या हम बोझ हैं?”
“नहीं! बिल्कुल नहीं। पर शायद वह अपने सपनों में जगह ढूँढ रहा है।”
सुधा की आँखों से आँसू बह निकले।
बेटा—जो दो दुनियाओं के बीच फँसा था
उधर निखिल भी चैन में नहीं था।
ऑफिस में काम के दौरान भी उसके कानों में माँ की आवाज गूँजती रहती,
“वहाँ जाकर हमसे दूर कैसे रह पाओगे?”
“हम कौन होंगे तुम्हारे धीरे-धीरे बदलते जीवन में?”
निखिल के दोस्तों ने कहा—
“यार जॉब तो जिंदगी का आधार है। माँ-बाप कुछ दिन नाखुश रहेंगे, पर बाद में गर्व करेंगे।”
“अकेले रहने से किसे फर्क पड़ता है? हर कोई दूर रहता है।”
लेकिन निखिल को फर्क पड़ता था।
बहुत पड़ता था।
हर रात वह सोचता कि उन्हें कैसे समझाए, या शायद खुद ही समझ जाए कि यह कदम उसके घर के लिए सही नहीं।
तैयारियाँ शुरू — और डर भी
एक दिन निखिल ने बताया—
“मेरा वीज़ा लग गया।”
सुधा थाली लेकर आ रही थीं। थाली उनके हाथ से छूटकर फर्श पर गिर गई।
प्लेट का शोर पूरे घर में गूँज गया।
कमलेश जी कुर्सी पर बैठते-बैठते रुक गए।
“इतनी जल्दी?”
“हाँ पापा… बस दस्तावेज़ बचे हैं।”
सुधा ने अपने आँसू पोंछते हुए पूछा,
“क्या वहाँ की सरकार तुम्हें हमेशा के लिए बसने का ऑफर दे रही है?”
निखिल चौंक गया।
“आपको कैसे पता?”
“हम माँ-बाप हैं निखिल। बेटे की आँखों की हलचल पढ़ लेते हैं।”
उस रात सुधा का खाना喉 में अटक गया।
कमलेश जी चुपचाप छत की ओर देखते रहे।
निखिल अपने कमरे में बैठकर सिर पकड़े रो पड़ा।
समाज की बातें—जो घाव गहरा करती हैं
रिश्तेदार और पड़ोसी जब ये सुनते, तो एक से एक तीर जैसे शब्द उन्हें चीर जाते—
“अरे विदेश जाने दो, पैसा भेजता रहेगा।”
“अब कौन बूढ़े माँ-बाप की सेवा करता है?”
“आजकल के लड़के लौटते नहीं वापस।”
कुछ लोग तो सीधा कह जाते—
“अब अकेले जीना सीख लो। जवान बेटा गया, खत्म हो जाएगा घर का चिराग.”
सुधा ये सुनकर रात-रात भर कंबल में मुँह छिपाकर रोतीं।
कमलेश जी भी अब पहले की तरह मज़बूत नहीं रहे थे।
जलती दीपक की लौ — माँ की तबीयत बिगड़ना
एक सप्ताह पहले अचानक सुधा को तेज़ गर्मी, चक्कर और सांस लेने में तकलीफ़ होने लगी।
निखिल घबरा गया।
अस्पताल में भर्ती करना पड़ा।
डॉक्टर ने कहा—
“ये इमोशनल स्ट्रेस की वजह है।
इन्हें अकेला छोड़ना सही नहीं।”
निखिल के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
उसी रात उसने माँ का हाथ पकड़ा,
“माँ… आपने बताया क्यों नहीं कि आपको इतना डर लग रहा है?”
सुधा ने धीमी आवाज़ में कहा—
“निखिल… जब बच्चा छोटा होता है, माँ उसका हाथ पकड़े रहती है।
पर बुढ़ापे में… माँ को बच्चे का हाथ पकड़ना पड़ता है।”
“हम अकेले कैसे रहेंगे बेटा?
तुम हमारे पास नहीं रहे, तो जिंदगी किससे बात करेगी?”
निखिल पिघल गया।
उसने माँ का हाथ अपने माथे से लगा लिया।
“माँ… मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊँगा।”
कमलेश जी भी आँखों में आँसू लेकर खड़े थे।
निर्णय — जो हर रिश्ते को मजबूत कर गया
अगली सुबह निखिल सीधे अपने ऑफिस गया।
मालिक ने पूछा,
“तुमने कॉन्ट्रैक्ट साइन क्यों नहीं किया?”
निखिल ने शांत स्वर में कहा,
“सर, मैं विदेश की नौकरी स्वीकार नहीं कर सकता। मेरे माता-पिता बूढ़े हैं। वे मेरे बिना अकेले नहीं रह पाएँगे। करियर जीवन का हिस्सा है—पर रिश्ते जीवन का आधार हैं।”
बॉस कुछ क्षण चुप रहे, फिर बोले,
“निखिल, तुमने साहसिक निर्णय लिया है।
तुम खुश रहोगे।
आज भी दुनिया को ऐसे बेटों की जरूरत है।”
वह घर लौटा तो सुधा खाना बना रही थीं।
कमलेश जी टीवी पर सब्जियों की कीमतें देख रहे थे।
दोनों ने बेटे को देखकर जैसे अपनी साँस रोक ली।
निखिल ने कहा—
“माँ… पापा… मैं कहीं नहीं जा रहा।”
सुधा के हाथ से करछी गिर गई,
पर इस बार टूटकर नहीं…
सुकून की वजह से।
“सच?"
“हाँ माँ। मैंने ऑफर ठुकरा दिया।
मैं यहीं रहूँगा — आपके साथ।”
सुधा ने बेटे को गले लगा लिया।
कमलेश जी की आँखें भीग उठीं,
“बेटा, करियर के लिए हमने तुझे रोकने की कभी कोशिश नहीं की।
पर अकेले रहने का डर सच में जान ले लेता है।”
“मैं जान गया पापा,” निखिल ने कहा।
“शायद मैं देर से समझा…
लेकिन सही समय पर समझ गया।”
फिर घर लौटा जीवन
धीरे-धीरे सुधा ठीक हो गईं।
घर में फिर स्वाद लौटा।
बरामदे में शाम की चाय दो के बजाय तीन कप में बनने लगी।
कमलेश जी और निखिल मिलकर बाग में नए पौधे लगाने लगे।
निखिल ने लोकल ऑफिस में प्रमोशन के लिए भी आवेदन दिया।
और एक दिन निखिल बोला—
“माँ, अगली छुट्टियों में हम सब घूमने चलेंगे। कहीं साथ में।
वहीं से नए सपने चुनेंगे—जो सबको साथ लेकर पूरे हो सकें।”
सुधा मुस्कराईं,
“बस इतना ही चाहिए था बेटा…
हमारे लिए सपने मत छोड़ो—
बस अपने सपनों में हमें शामिल रखना।”
संदेश
बूढ़े माता-पिता सिर्फ सहारे नहीं ढूँढते,
वे सिर्फ यह चाहते हैं कि
उनके जीवन के सांझ में उनका अपना बच्चा साथ खड़ा रहे।
करियर ज़रूरी है,
लेकिन घर, परिवार और रिश्ते
उनका आधार हैं।
वह जीवन भर कभी अकेला नहीं पड़ता।
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