राजीव और मीरा नोएडा की एक सोसाइटी में रहते थे — साफ-सुथरी गैलरियाँ, हर फ्लैट में झिलमिलाती रोशनी और हर दरवाज़े पर डिजिटल लॉक। दोनों अपने छोटे से संसार में संतुष्ट थे। रिटायरमेंट के बाद की ज़िंदगी उन्होंने बेहद व्यवस्थित बना ली थी — सुबह की सैर, फिर अख़बार के साथ चाय, दोपहर में मीरा का बागवानी करना, और शाम को छत पर बैठकर ढलते सूरज को देखना।
कहने को तो राजीव का भी पूरा परिवार था — दो भाई, एक बहन, और उनका इकलौता बेटा निखिल। पर अब वो सब अपने-अपने संसार में सिमट चुके थे। दोनों भाई नौकरी के सिलसिले में अलग-अलग शहरों में बस गए थे; बहन की शादी जयपुर में हुई थी, और वो वहीं की हो कर रह गई। माँ-बाबूजी कई साल पहले चल बसे थे।
निखिल ने इंजीनियरिंग के बाद बेंगलुरु की एक बड़ी कंपनी में जॉब पकड़ी और वहीं का हो गया। कुछ समय बाद शादी हुई, फिर बच्चा हुआ, और अब वो परिवार वहीं सेटल हो चुका था।
राजीव और मीरा, डिफेंस कॉलोनी जैसी ही अपनी इस सोसाइटी में, बस एक-दूसरे का सहारा बनकर रह गए थे।
उनके सामने वाले फ्लैट में रिटायर्ड एयर फ़ोर्स अधिकारी वर्मा साहब अपनी पत्नी अर्चना और बेटे रोहित के साथ रहते थे। राजीव और वर्मा साहब की खूब पटती थी। दोनों की सोच और दिनचर्या मिलती-जुलती थी — सुबह मॉर्निंग वॉक पर साथ जाना, गार्डन में पेड़ों को पानी देना, और शाम को बालकनी में बैठकर चाय की प्याली के साथ पुरानी बातें करना। कभी मौसम, कभी राजनीति, कभी पुराने ऑफिस के किस्से — विषय बदलते रहते, पर साथ वही रहता।
मीरा और अर्चना भी धीरे-धीरे अच्छी सहेलियाँ बन गईं। एक-दूसरे को नए व्यंजन सिखाना, पौधे बदलना, और वीकेंड पर साथ मंदिर जाना — अब ये उनकी आदत बन चुकी थी।
ज़िंदगी एक आरामदेह रफ़्तार से चल रही थी।
एक बार राजीव बेटे के बुलावे पर बेंगलुरु गए। वहाँ सब कुछ व्यवस्थित था — निखिल का बड़ा फ्लैट, आधुनिक रसोई, बच्चे के लिए प्ले रूम, और हर चीज़ पर मशीनों का नियंत्रण। पर राजीव को वहाँ अपनापन कम लगा।
शाम को जब वो सोसाइटी के पार्क में टहलने निकले, तो लिफ्ट में उनके साथ एक व्यक्ति मिले — मध्यम आयु, चेहरे पर सौम्यता। नीचे उतरते हुए दोनों में बातें शुरू हुईं — मौसम, शहर की ट्रैफ़िक, और बच्चों की पढ़ाई पर चर्चा। उनका नाम महेन्द्र गुप्ता था, उसी फ्लोर पर रहते थे। धीरे-धीरे बातचीत रोज़ की आदत बन गई।
कुछ ही दिनों में महेन्द्र और राजीव अच्छे मित्र बन गए। कभी चाय पर, कभी टहलते-चलते, दोनों जीवन के किस्से साझा करते।
एक शाम राजीव को गुप्ता जी ने घर बुलाया। उनकी पत्नी ने चाय और नमकीन के साथ गर्मजोशी से स्वागत किया। दोनों परिवारों में आत्मीयता का माहौल था। इतने में निखिल ऑफिस से लौटा। उसने बस सिर हिलाकर “हैलो” कहा और अंदर चला गया। कुछ देर बाद गुप्ता दंपति विदा लेकर चले गए।
निखिल ने तुरंत पूछा, “डैड, ये लोग कौन थे?”
राजीव ने कहा, “बेटा, ये तुम्हारे पड़ोसी गुप्ता जी हैं, सामने वाले फ्लैट में रहते हैं।”
“ओह! अच्छा… लेकिन पापा, आप तो कुछ दिन के लिए आए हैं, इतने घनिष्ठ रिश्ते बनाने की ज़रूरत नहीं है।”
राजीव मुस्कुराए, “बेटा, रिश्ते बनाने में क्या बुराई है? पड़ोसी सबसे पहले मदद को आते हैं जब कोई मुसीबत होती है।”
निखिल ने हँसते हुए कहा, “पापा, ये बेंगलुरु है, कोई छोटा शहर नहीं। यहाँ हर कोई अपनी दुनिया में व्यस्त है। पड़ोसी भी अपॉइंटमेंट लेकर मिलते हैं।”
राजीव चुप हो गए, लेकिन मन में एक हल्की कसक रह गई।
कुछ दिन बाद वे वापस नोएडा लौट आए। पुराने माहौल में लौटकर उन्हें राहत मिली। वर्मा साहब और मीरा-अर्चना के साथ उनकी दिनचर्या फिर वैसे ही चल पड़ी — पार्क, पौधे, और पुरानी यादें।
समय बीतता गया। निखिल और उसका परिवार अपने जीवन में व्यस्त रहे, और राजीव-मीरा अपने शांत जीवन में।
एक दिन रात को लगभग साढ़े नौ बजे मीरा को निखिल का घबराया हुआ फोन आया। उनकी आवाज़ काँप रही थी — “माँ, आरोही (उनकी पाँच साल की बेटी) खेलते-खेलते गिर गई, सिर फट गया है, बहुत खून निकल रहा है… डैड से बात कराइए।”
राजीव उस समय एक शादी में थे, लेकिन जैसे ही कॉल मिली, उन्होंने तुरंत कहा, “मीरा, फोन रखो, मैं कुछ करता हूँ।” उन्होंने तुरंत बेंगलुरु के गुप्ता जी को कॉल लगाया, पूरी स्थिति बताई और मदद मांगी।
गुप्ता जी बिना देर किए अपने बेटे के साथ निखिल के घर पहुँचे। आरोही बेहोश थी, और बहू घबराई हुई थी। उन्होंने तुरंत उसे अपनी कार में बिठाया और अस्पताल ले गए। डॉक्टर ने जांच की और कहा, “घबराने की बात नहीं है, सिर्फ़ हल्की चोट है, बच्ची डर गई थी।”
गुप्ता जी ने निखिल की पत्नी को संभाला, दवा दिलवाई और सब कुछ नॉर्मल होते देख बच्ची को घर छोड़ आए।
रात में निखिल की फ्लाइट लैंड हुई। जैसे ही उसने फोन देखा, मिस्ड कॉल की भरमार थी। उसने तुरंत घर फोन किया। पत्नी ने सब बताया — “गुप्ता अंकल आए थे, उन्होंने ही सब संभाला।”
निखिल कुछ देर तक चुप रहा। फिर बोला, “माँ, पापा को कहिएगा, वो सही थे…।”
अगली सुबह वह गुप्ता जी के घर गया। हाथ जोड़कर बोला, “थैंक यू अंकल, आपने जो किया, वो कोई और नहीं करता।”
गुप्ता जी मुस्कुराए, “बेटा, हम तो बस इंसानियत निभा रहे थे। पड़ोसी का यही तो काम है।”
जब उसने पापा को फोन किया, तो राजीव ने शांत स्वर में कहा, “देखा बेटा, गाँव हो या शहर — मुसीबत में सबसे पहले वही दौड़ता है, जो दीवार के उस पार रहता है। रिश्ते खून से नहीं, दिल से बनते हैं।”
निखिल की आँखें भीग गईं। उसने धीरे से कहा, “डैड, अब समझ आया… महानगरों में भी दिल वाले लोग रहते हैं, बस पहचानने की देर होती है।”
फोन कटने के बाद राजीव और मीरा देर तक बालकनी में बैठे रहे। हवा में ठंडक थी, पर उनके दिलों में एक गर्माहट थी — वो संतोष जो तब मिलता है जब जीवन का सबक किसी अपने को समझ आ जाए।
वर्मा साहब ने नीचे से आवाज़ लगाई, “राजीव भाई, चाय तैयार है! आज तो डबल सेलिब्रेशन होना चाहिए — आपकी बात सच निकली।”
राजीव मुस्कुरा दिए। उन्होंने मीरा की ओर देखा —
“देखो मीरा, पड़ोसी ही असली रिश्तेदार होते हैं… बाकी सब तो दूरी के साथ कमज़ोर हो जाते हैं।”
मीरा ने धीरे से सिर हिलाया। सामने बगीचे के फूलों में ओस की बूँदें चमक रही थीं — जैसे ज़िंदगी फिर से मुस्कुरा रही हो।
एम. पी. सिंह
(Mohindra Singh)
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