तकदीर कर्मों से बनती है

 रमेश का बचपन संघर्ष की धूल में बीता। गाँव के बाहरी हिस्से में मिट्टी और टीन की छत वाले छोटे से घर में वह अपने माता-पिता और तीन छोटे भाई-बहनों के साथ रहता था। पिता खेतों में मजदूरी करते और माँ दूसरों के घरों में बर्तन मांजती थीं। गरीबी इतनी थी कि कई बार शाम की रोटी का भी भरोसा नहीं होता था। पर उन कठिन हालातों में भी रमेश की आँखों में एक चमक थी—कुछ कर दिखाने की, अपनी किस्मत खुद लिखने की।

हर सुबह वह फटी बस्ता लेकर गाँव के सरकारी स्कूल जाता, जहाँ टूटी बेंचें और धूलभरी दीवारें उसकी साथी थीं। लेकिन उसकी लगन किसी चीज़ की मोहताज नहीं थी। अध्यापक जब दूसरे बच्चों की कॉपियाँ सरसरी निगाह से देखते, तो रमेश की कॉपी पर कुछ पल ठहर जाते। साफ-सुथरा लेख, मेहनत से हल किए सवाल, और सबसे बढ़कर, आँखों में कुछ सीखने की प्यास।

स्कूल से लौटने के बाद वह गाँव के दूधिए की दुकान पर काम करता। शाम को ट्यूशन पढ़ाने जाता ताकि थोड़े बहुत पैसे कमा सके। माँ अक्सर कहतीं, “बेटा, थोड़ा आराम कर लिया कर, तेरे हाथों में छाले पड़ गए हैं।” रमेश मुस्कुरा देता, “अम्मा, अब नहीं रुका तो जिंदगी भर वही छाले रहेंगे।”

धीरे-धीरे उसने दसवीं और बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंकों से पास की। कॉलेज जाने का सपना तो था, पर घर की हालत ऐसी कि फीस जुटाना मुश्किल था। तब उसने पास के कस्बे में जाकर एक प्राइवेट ऑफिस में क्लर्क की नौकरी पकड़ ली। सुबह सात बजे वह घर से निकलता और रात नौ बजे लौटता, पर उसके चेहरे पर थकान से ज़्यादा संतोष होता।

वह अपनी तनख्वाह का ज्यादातर हिस्सा घर भेज देता। छोटे भाई सुरेश को पढ़ाई में बहुत रुचि थी, तो रमेश ने उसे शहर के कॉलेज में दाखिला दिलवाया। बहन गीता को सिलाई का कोर्स कराया और छोटी माया को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाया। धीरे-धीरे घर में थोड़ी रोशनी आने लगी। पुराने घर की जगह पक्की दीवारें बनने लगीं।

लेकिन जब किसी का जीवन ऊपर उठने लगता है, तो कुछ लोग उसे नीचे खींचने की कोशिश ज़रूर करते हैं। रमेश के चाचा और उनके बेटे को यह सब रास नहीं आया। वे हर वक्त ताने कसते—“देखो ज़रा, अब ये लड़का बड़ा साहब बन गया है… सरकारी स्कूल में पढ़कर अब हमें सिखाएगा?”

एक दिन जब रमेश ने अपने गाँव में छोटे बच्चों के लिए “संध्या अध्ययन केंद्र” खोलने की घोषणा की, ताकि गरीब बच्चों को मुफ्त में पढ़ाई मिल सके, तो यही रिश्तेदार पंचायत में उसके खिलाफ बातें फैलाने लगे। बोले, “ये तो दिखावे के लिए कर रहा है, लोगों की सहानुभूति बटोरने के लिए।” कुछ लोगों ने उसके कागजों में गलती निकालने की कोशिश की, तो किसी ने अफवाह फैला दी कि फंड का दुरुपयोग हो रहा है।

रमेश के सामने कठिन समय था। वह चाहता तो हार मान सकता था, पर उसने सोचा — “जब मैंने जीवन की इतनी सर्दियाँ झेली हैं, तो अब इन लोगों की ठंडी बातों से क्यों डरूँ?” उसने सबूतों के साथ अपने काम की ईमानदारी साबित की और स्कूल को चलता रखा। धीरे-धीरे लोगों को उसकी सच्चाई का एहसास हुआ।

समय बीतता गया। रमेश की मेहनत रंग लाने लगी। उसने डिस्टेंस लर्निंग से बी.कॉम पूरा किया, फिर एक परीक्षा पास कर सरकारी बैंक में क्लर्क बन गया। कुछ ही सालों में पदोन्नति होकर अधिकारी बन गया। गाँव लौटता तो लोग गर्व से कहते—“देखो, रमेश अब हमारे गाँव का गौरव है।”

लेकिन रमेश का सिर कभी घमंड से ऊँचा नहीं हुआ। वह अक्सर कहता—“अगर किसी की तकदीर मेरी तरह कठिन रही है, तो उसे मेहनत से आसान भी वही बना सकता है।”

एक दिन उसकी माँ बीमार पड़ीं। शहर के अस्पताल में इलाज चल रहा था। रमेश रात-दिन उनकी सेवा में लगा रहा। डॉक्टर ने कहा, “माँ अब खतरे से बाहर हैं।” उस रात रमेश अस्पताल के बाहर बैठा आसमान देख रहा था। हल्की ठंडी हवा चल रही थी। उसने मन ही मन कहा—“भगवान, तूने मुझे हमेशा संघर्ष दिया, लेकिन हर बार उससे उबरने की ताकत भी दी। यही सबसे बड़ा वरदान है।”

धीरे-धीरे उसके भाई-बहन भी अपने पैरों पर खड़े हो गए। सुरेश ने इंजीनियरिंग पास की और एक अच्छी कंपनी में नौकरी पाई। गीता ने सिलाई का छोटा व्यवसाय शुरू किया और माया ने टीचर बनकर गाँव के उसी सरकारी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया, जहाँ से रमेश की यात्रा शुरू हुई थी।

कई साल बाद जब रमेश अपने गाँव लौटा, तो उसने देखा कि बच्चे उसके “संध्या अध्ययन केंद्र” में पढ़ रहे हैं। पुराने टूटे कमरे अब रंगीन दीवारों से चमक रहे थे। कुछ बच्चों ने उसकी ओर देखकर कहा, “राम सर आ गए!” रमेश मुस्कुरा दिया—अब बच्चे उसे “राम सर” कहते थे।

उसी दिन उसका वही चचेरा भाई उसके पास आया, जो कभी उसकी राह में काँटे बिछाता था। बोला, “रमेश, हमने तुम्हारे साथ बहुत गलत किया। पर तुमने कभी बदला नहीं लिया, हमें तो अब शर्म आती है।”

रमेश ने बस इतना कहा, “कोई बात नहीं। जिस दिन मैंने दूसरों से उम्मीद छोड़ खुद पर भरोसा करना सीखा, उस दिन मेरे जीवन से शिकायतें चली गईं।”

रात को जब वह अपने पुराने आँगन में खड़ा हुआ, तो उसे याद आया — यही आँगन कभी बारिश में टपकता था, दीवारों में दरारें थीं, और आज वहाँ से नई खुशबू आ रही थी। माँ की बात फिर कानों में गूँज उठी — “बेटा, तेरे हाथों में छाले हैं, पर यही छाले एक दिन तेरी तकदीर लिखेंगे।”

सचमुच, वही हुआ।

रमेश अब किसी के लिए बस एक सफल व्यक्ति नहीं था, बल्कि एक प्रेरणा था — उन सबके लिए जो मानते हैं कि गरीबी किसी की सीमा नहीं, सिर्फ एक आरंभ है।

वह जान चुका था कि भगवान हर मेहनती इंसान के लिए एक नया दरवाज़ा खोलता है। अगर एक रास्ता बंद होता है, तो दूसरा रास्ता उसी की कोशिशों से बनता है।

कई सालों बाद जब पत्रकारों ने उसका साक्षात्कार लिया और पूछा — “आपकी सफलता का रहस्य क्या है?”

रमेश ने मुस्कुराकर जवाब दिया —
“मैंने कभी फल की चिंता नहीं की। मैं सिर्फ बीज बोता रहा। किस मिट्टी में, किस मौसम में, कौन-सा बीज फलेगा, ये भगवान जाने — पर बोना मेरा काम था।”

और यही विश्वास उसकी पहचान बन गया।

सच कहा गया है —
तकदीर कर्मों से बनती है, और कर्म वही करता है जो अपने सपनों पर भरोसा रखता है।

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