घर की बातें घर में ही रहें तो बेहतर होता है।

 रवि जैसे ही ऑफिस से लौटा, उसके चेहरे पर ग़ुस्से की लकीरें साफ़ दिख रही थीं। कमरे में घुसते ही उसने ब्रीफ़केस मेज़ पर पटक दिया और ऊँची आवाज़ में बोला —

“नेहा! तुमसे कितनी बार कहा है कि मोहल्ले की महिलाओं की उन गपशप बैठकों में मत बैठा करो, लेकिन तुम्हें किसी की बात समझ में ही नहीं आती!”

रसोई से धीमी आवाज़ आई —
“क्या हुआ रवि? ऐसा क्या हो गया?”

रवि ने जवाब नहीं दिया। वह सीधे सोफ़े पर बैठ गया, माथे पर हाथ रखे कुछ सोचता रहा। फिर अचानक बोला —
“तुम्हें क्या पता है, आज मिसेज़ त्रिपाठी ने ऑफिस में मुझे किस लहजे में बात की! बोलीं — ‘आपकी पत्नी तो बहुत बातें करती हैं, सबको पता है कि आपकी बहन का पति बेरोज़गार है।’ अब बताओ, उन्हें यह बात पता चली कैसे?”

नेहा का चेहरा सफ़ेद पड़ गया। उसने थरथराते स्वर में कहा —
“मैंने तो बस इतना कहा था कि रिया के जीजाजी की नौकरी चली गई है… वो भी इसलिए कि सब हालचाल पूछ रहे थे।”

“हालचाल पूछ रहे थे या तुम्हें खुद बोलने का बहाना चाहिए था?” रवि ने तेज़ आवाज़ में कहा। “कितनी बार कहा है, अपने घर की बातें बाहर मत किया करो। पड़ोसियों से रिश्ता नमस्ते तक ठीक है, पर तुम तो हर छोटी-बड़ी बात वहाँ जाकर सुना देती हो!”

नेहा की आँखों में आँसू आ गए। वह धीरे से बोली —
“मैंने तो किसी का बुरा नहीं चाहा। मुझे क्या पता था कि लोग मज़ाक उड़ाएँगे...”

इतने में रवि की माँ, सुषमा देवी, जो अंदर पूजा कर रही थीं, बाहर आ गईं। उन्होंने माहौल भाँपते हुए धीरे से कहा —
“बेटा, ग़ुस्से में शब्दों की दीवार मत खड़ी कर। बात करने से ही दिल के कोने साफ़ होते हैं।”

रवि चुप रहा, पर सुषमा देवी ने नेहा की तरफ़ देखा —
“बेटी, रवि की बात में थोड़ा सच है। पड़ोस की औरतें दोस्त बन जाती हैं, लेकिन हर दोस्त हमदर्द नहीं होती। घर की बातें घर में ही रहें तो बेहतर होता है। बाहर जो सुनता है, वो अपने मतलब की कहानी बना लेता है।”

नेहा चुपचाप सिर झुका गई।


अगले दिन नेहा जब किराने की दुकान से लौट रही थी, तो सड़क के किनारे मोहल्ले की कुछ औरतें बैठी थीं। उन्होंने उसे देखते ही कहा —
“अरे नेहा! सुना है तुम्हारे देवर की तबीयत ठीक नहीं रहती आजकल?”
“और तुम्हारी ननद के जीजाजी की नौकरी भी चली गई थी न?”

नेहा ने फीकी हँसी के साथ कहा —
“हाँ, अब ठीक हैं सब। बस, कभी-कभी मुश्किलें आती हैं।”

लेकिन अंदर से उसका मन टूट गया। उसे एहसास हुआ कि उसकी कही हर बात अब मोहल्ले की चर्चा बन चुकी है।


शाम को जब रवि ऑफिस से लौटा तो नेहा बालकनी में बैठी थी। उसकी आँखों में अपराधबोध झलक रहा था। रवि ने पहली बार बिना कुछ कहे उसके पास कुर्सी खींची।
“नेहा, मैं जानता हूँ तुम्हारा दिल साफ़ है। पर दुनिया हमेशा साफ़ नज़र से नहीं देखती।”

नेहा ने उसकी ओर देखा और कहा —
“मुझे अब समझ आ गया, रवि। मैं बातें साझा करने में हल्का महसूस करती थी, लेकिन अब लगता है मैं अपनी ही इज़्ज़त दूसरों के हवाले कर रही थी।”

रवि ने मुस्कुराते हुए कहा —
“गलती हर किसी से होती है। ज़रूरी यह है कि हम उसे समझें और बदलें।”


दिन बीतते गए। अब नेहा ने मोहल्ले की उन बैठकों से दूरी बना ली थी। वह अपनी बेटी आरुषि के साथ ज़्यादा समय बिताने लगी — उसके साथ पढ़ती, कहानियाँ सुनाती और कभी-कभी सुषमा देवी के साथ रसोई में नए व्यंजन सीखती।

धीरे-धीरे मोहल्ले की औरतों को भी उसकी कमी महसूस होने लगी। एक दिन मिसेज़ भटनागर उसके घर आईं और बोलीं —
“नेहा जी, आजकल आप नज़र ही नहीं आतीं, सब पूछ रहे थे!”

नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा —
“अब तो बस घर में व्यस्त रहती हूँ। परिवार के साथ रहना ज़्यादा अच्छा लगता है।”

उसकी बातों में एक आत्मविश्वास झलक रहा था।


एक रविवार की शाम, रवि और सुषमा देवी चाय पी रहे थे। रवि ने कहा —
“माँ, नेहा में सचमुच बहुत बदलाव आया है। अब वो छोटी-छोटी बातों को लेकर परेशान नहीं होती।”

सुषमा देवी ने चाय का प्याला रखते हुए कहा —
“हर औरत में बदलने की ताक़त होती है, बेटा। बस उसे सही राह दिखाने वाला चाहिए।”

उसी समय नेहा ने ट्रे में पकौड़े रखे और बोली —
“मम्मी, आप सही कहती हैं। पहले मैं दूसरों की बातों में अपना वक़्त गँवाती थी। अब मैं सोचती हूँ कि जो समय मैंने बर्बाद किया, अगर वो घर और खुद पर लगाया होता तो ज़िंदगी और आसान होती।”

रवि ने मुस्कुराते हुए कहा —
“और सुकूनभरी भी।”

तीनों के बीच हल्की मुस्कान फैल गई।


कुछ महीनों बाद मोहल्ले में एक महिला मंडल की मीटिंग हुई, जहाँ नेहा को ‘महिला सशक्तिकरण’ पर बोलने के लिए बुलाया गया। शुरू में उसने मना कर दिया, लेकिन रवि ने कहा —
“जाओ नेहा, शायद अब तुम्हारे शब्द किसी और औरत को अपनी गलती समझा दें।”

नेहा ने मंच पर पहुँचकर कहा —
“कभी-कभी हम सोचते हैं कि अपनी तकलीफ़ें बाँटने से हल्की हो जाएँगी, लेकिन सच्चाई यह है कि हर कान हमदर्द नहीं होता। परिवार हमारा असली सहारा है — वही जो ग़लती पर भी साथ खड़ा रहता है। मैंने रिश्तों की अहमियत बहुत देर से समझी, लेकिन अब ये सीखा है कि परिवार की बातों की मर्यादा ही हमारे संस्कार की पहचान है।”

पूरा हॉल तालियों से गूंज उठा।


घर लौटते समय रवि ने कहा —
“मुझे तुम पर गर्व है, नेहा।”
नेहा मुस्कुराई —
“मुझे भी… खुद पर।”



स्वरचित 

डॉ ऋतु अग्रवाल

मेरठ, उत्तर प्रदेश


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