लखनऊ के एक कार शो-रूम में संध्या नाम की युवती ऑफिस के कोने में बैठी फाइलों में सिर झुकाए काम कर रही थी। गर्मी की दोपहर थी। ए.सी. की ठंडी हवा और बाहर सड़क पर भागती गाड़ियों के बीच वह पूरी तन्मयता से नंबरों और कागज़ों में उलझी थी।
संध्या उस दिन कंपनी के लिए आए नए ऑर्डर — “पंद्रह नई गाड़ियाँ” — के सभी दस्तावेज़ तैयार कर रही थी। जिस मोबाइल कंपनी ने यह ऑर्डर दिया था, उसके बड़े अफसर खुद शोरूम में मौजूद थे। वे गाड़ियों की डिलीवरी और रजिस्ट्रेशन की औपचारिकताओं पर नज़र रख रहे थे।
उन अफसरों में से एक थे राकेश सिन्हा, एक अनुभवी और तेज़तर्रार व्यक्ति, जिनकी बातों में आत्मविश्वास झलकता था। उन्होंने संध्या को गौर से देखा — तेज़ गति से काम करते हुए, हर नंबर को दो बार क्रॉस-चेक करते हुए, और फिर भी हर आने-जाने वाले ग्राहक को मुस्कुराकर “गुड आफ्टरनून सर” कहते हुए।
राकेश ने पास आकर पूछा —
“आपका नाम?”
संध्या ने सिर उठाया, हल्के से मुस्कुराई —
“संध्या शर्मा, सर।”
“बहुत ईमानदारी से काम करती हो लगता है।”
“जी, कोशिश करती हूँ कि गलती ना हो,” उसने झिझकते हुए कहा।
राकेश ने फाइल हाथ में ली और बोला —
“इतना बढ़िया काम और इतनी जिम्मेदारी… तनख्वाह कितनी है तुम्हारी?”
संध्या ने धीरे से जवाब दिया —
“तीन हज़ार, सर।”
राकेश कुछ पल चुप रहे।
फिर बोले — “तीन हज़ार? यहाँ की दीवारें तुम्हारी मेहनत का सम्मान नहीं करतीं। तुम्हारे पास क्षमता है, आत्मविश्वास है — और सबसे ज़रूरी, सच्चाई है। कल सुबह 10 बजे हमारे ऑफिस आओ। एक इंटरव्यू है, बस अपनी मुस्कान और आत्मविश्वास साथ लाना।”
संध्या ने हैरानी से देखा —
“पर सर… मैं तो बस एक क्लर्क हूँ, आपको शायद गलतफ़हमी हुई है।”
राकेश ने मुस्कुराकर कहा —
“गलतफ़हमी नहीं, पहचान है। तुम खुद नहीं जानती कि तुम्हारे अंदर कितनी ताक़त है।”
अगली सुबह संध्या ने अपनी सबसे साफ़ सलवार-कमीज़ पहनी, बालों में हल्का तेल लगाया और एक पुराना फोल्डर लेकर राकेश की कंपनी पहुँची। उसके हाथ ठंडे थे, दिल धड़क रहा था, लेकिन चेहरे पर आत्मविश्वास की झलक थी।
इंटरव्यू बोर्ड में राकेश समेत तीन वरिष्ठ अधिकारी बैठे थे। सवाल आसान नहीं थे — मार्केटिंग, कस्टमर रिलेशन, अकाउंट मैनेजमेंट… लेकिन संध्या ने हर सवाल का जवाब अपने अनुभव और व्यावहारिक समझ से दिया।
अंत में राकेश ने पूछा —
“अगर हम आपको मौका दें, तो आप क्या साबित करेंगी?”
संध्या ने बिना झिझक कहा —
“मैं साबित करूँगी कि बड़े सपने देखने के लिए बड़ी डिग्री नहीं, बड़ा हौसला चाहिए।”
कमरे में कुछ पल सन्नाटा रहा। फिर राकेश ने कहा —
“कब से जॉइन कर सकती हो?”
तीन हज़ार वाली संध्या अब 18,000 रुपये महीने पर “कस्टमर सर्विस एग्जीक्यूटिव” बन गई थी। पहली बार उसने अपने जीवन में खुद के पैसे से अपनी माँ के लिए साड़ी खरीदी। जब उसने माँ को साड़ी दी तो माँ की आँखें भर आईं —
“बेटी, अब तो लगता है भगवान ने हमारी सुन ली।”
संध्या ने मुस्कुराते हुए कहा —
“माँ, अब बस देखना… ये तो शुरुआत है।”
समय बीतता गया। संध्या ने हर काम में अपना दिल लगाया। ऑफिस में उसके आइडियाज से ग्राहक बढ़ने लगे। उसने छोटे डीलरों के लिए “लॉयल्टी प्रोग्राम” शुरू किया, जिससे बिक्री में अचानक वृद्धि हुई। उसकी सादगी और ईमानदारी ने कंपनी में सबका दिल जीत लिया।
तीन साल में वह “सीनियर एक्जीक्यूटिव”, फिर “टीम लीडर” और आखिरकार “ब्रांच मैनेजर” बन गई।
अब उसकी सैलरी लाखों में थी।
पर वह अब भी वही थी — वही मुस्कुराती हुई, सबको ‘सुप्रभात’ कहने वाली, और नए कर्मचारियों को सिखाने वाली संध्या।
एक दिन उसकी पुरानी सहकर्मी रेशमा, जो अब भी उसी कार शोरूम में थी, उसे मिलने आई।
“अरे संध्या! तू तो आसमान में उड़ गई, और हम अब भी ज़मीन पर हैं।”
संध्या हँस दी —
“रेशमा, आसमान किसी का नहीं होता… बस जो पंख फैलाना जानता है, वही उड़ता है। तुम चाहो तो आज से शुरू करो।”
रेशमा ने सिर झुकाया — “अब उम्र निकल गई।”
संध्या ने मुस्कुरा कर कहा —
“उम्र नहीं, हिम्मत निकलती है, और तेरे अंदर अब भी वो है।”
उसने रेशमा का हाथ थाम लिया।
बीस साल बाद, आज संध्या अपनी खुद की कंसल्टिंग कंपनी की डायरेक्टर है।
वह हर साल लगभग पचास लाख रुपये टैक्स भरती है।
देशभर में उसकी शाखाएँ हैं, और हर महीने वह दर्जनों युवाओं को रोजगार देती है।
फिर भी, जब कभी वह लखनऊ जाती है, तो उस पुराने कार शोरूम के सामने खड़ी होकर कुछ पल चुप रहती है।
काँच के पार अब नई कुर्सियाँ, नए लोग हैं — पर उसकी आँखों में वही पुरानी यादें तैर जाती हैं।
वह मन ही मन कहती है —
“अगर उस दिन राकेश सर ने मुझ पर भरोसा न किया होता, तो शायद मैं आज भी वही तीन हज़ार में अपनी ज़िंदगी गिन रही होती।”
और फिर अपनी गाड़ी में बैठकर मुस्कुरा देती है।
क्योंकि अब वह जानती है —
भाग्य तभी चमकता है जब पुरुषार्थ का तेल और आत्मविश्वास की बाती साथ जलती है।
मूल लेखक
बालेश्वर गुप्ता
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