उसने कहा" मैं मां को साथ नहीं रखूंगा"।
क्यों ?" जज ने पूछा "इस बुढ़ापे में तुम ही तो उसका सहारा हो फिर ये रवैया क्यूं"...।
"मेरी बीवी नहीं चाहती उसका इगो हर्ट होता है" लड़के ने बनावटी बात बोली।
"ये भी भला कोई बात हुई ,समझाओ बीवी को"
" नहीं समझा सकता"
क्यूं"
"उसका इगो भी महत्व पूर्ण है" वह कुछ सोचते हुए कहता है।
" क्या मतलब"
" मैं कौन होता हूं उसे समझाने वाला"
" अरे तुम उसके पति हो"
"पति हूं तो क्या वो मेरी बात मानने के लिए बाध्य है" उसने उल्टा सवाल किया।
जज ने सोचा .....
" तो तुम्हारी मां तुम्हारी जिम्मेदारी नहीं है? जज ने पुनः सवाल किया।
" है और मैं उठाऊंगा भी.... पर मैं अपनी फैमिली के साथ उन्हें नहीं रख सकता " उसने मजबूती से कहा शायद उसे कुछ पिछला हिसाब चुकाना था।
अब मां को तो वैसे भी अकेले रहने की आदत है... है न मां !! " छोटी से छोटी बात पर कानून का फायदा उठाने वाली उस औरत से उसने पूछा।
सन्नाटा...
मां के आंसू लगातार बह रहे थे। उसे याद आ रहा था कि किस तरह अपने बेटे को अपने दम पर पल पास कर बड़ा किया और आज...।
उसने पुनः बोलना शुरू किया "मैं नहीं चाहता कि मेरी बीवी भी छोटी सी बात पर मुझे छोड़ कर चली जाए और मैं अपने बच्चे से भी मिलने के लिए तरस जाऊं... मै हर हाल में अपने बच्चे के लिए कॉम्प्रोमाइज करूंगा वाइफ के साथ ...।बेटे के अंदर पिताविहीन होने का क्षोभ साफ दिख रहा था।
मां को याद आया की कॉम्प्रोमाइज वह भी कर सकती थी अपने बेटे के लिए..
आखिर झगड़ा किस दंपति में नहीं होता है ...
पर उसके इगो ने अपने ही बच्चे को उसके पिता और बड़े भाई से दूर कर दिया...।
जज कुछ न बोल सका उसे भी पारिवारिक घटनाएं याद आने लगी कि उसने भी जरूरत पड़ने पर परिवार से समझौता किया है।
तभी बहू ने आकर मां को उठाया और उसके आंसू पोंछे... आज वह सही अर्थ में अपनी जिम्मेदारियों के साथ कॉम्प्रोमाइज कर रही थी।
बेटे के आंख में आंसू थे काश! ऐसा कम्प्रोमाइज उसके माता पिता ने भी किया होता तो उसका बचपन यूं न अकेला होता।
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मौलिक व स्वरचित :--
~ कीर्ति रश्मि "नन्द( वाराणसी)
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