हेमंत,कभी कभी मुझे लगता है,मैं अपने पिता का पुत्र नही हूँ,वे मुझे कहीं से ले आये हैं।
क्यों,तुम्हे ऐसा लगता है,सुरेन?वे तो तुम्हे बेइंतिहा प्यार करते हैं, तुम्हे गलतफहमी हुई है।
कोई गलतफहमी नही,सब साफ साफ दिखाई देता है,साफ साफ महसूस होता है, उनके दिल है ही नही,खास तौर से मेरे लिये तो बिल्कुल भी नही।
यूँ तो सुरेन शांतिशरण जी का इकलौता बेटा था।सम्पन्न परिवार था।परिवार ही क्या मात्र तीन प्राणी ही तो थे,शांतिशरण जी,उनकी पत्नी सुरेखा और इन दोनों का बेटा सुरेन।शांतिशरण जी सच मे अपने खुद में भी और पत्नी बेटे के मामले में भी खूब अनुशासन प्रिय थे।समस्या ये ही थी बेटे और पिता में एक पीढी का अंतर यानी जेनेरेशन गैप,शांतिशरण जी जिसे अनुशासन समझते उनका बेटा उसे तानाशाही समझता,अपने प्रति पिता की हिकारत समझता।बचपन से वह यही देखता और भोगता आया था।सुरेन को उसके पिता किसी भी चीज की कमी नही रहने देते,पर पसंद उसके पापा की होती,वही निश्चित करते थे कि सुरेन को क्या चाहिये या उसके लिये क्या उचित है।बचपन तो बीत गया,पर जबसे सुरेन ने होश संभाला तब से उसे लगता कि पिता के सामने उसका कोई अस्तित्व ही नही है।सब कुछ उपलब्ध पर मर्जी पापा की।अपना अस्तित्व न होने की ग्रंथि सुरेन के मन मे इतनी गहरी बैठ गयी थी कि अपना घर उसे पराया लगने लगा था।
घर से वितृष्णा के कारण अपने मे खोये सुरेन ने अपनापन खोजा विम्मी में।उसके कॉलेज में ही पढ़ने वाली विम्मी खूबसूरत के साथ साथ परिपक्व भी थी।सुरेन उसे मां से बिछड़ा मासूम सा बच्चा लगता।जब सुरेन विम्मी से कहता कि वह अकेला है तो विम्मी कहती क्यो सुरेन क्या मैं नही हूँ तुम्हारे पास?ये शब्द सुनकर सुरेन के चेहरे पर चमक आ जाती,फिर वह सहम जाता, कही उसके पापा उसे विम्मी से अलग न कर दे।
आखिर वह दिन भी आ गया जब उसके पिता ने सुरेन से कहा कि वह कब से इतना बड़ा हो गया जो अपने जीवनसाथी के बारे में खुद सोचने लगा है?उन्हें कही से विम्मी के बारे में पता चल गया था।आज वह पहली बार अपनी माँ से चिपट कर भरपूर रोया और बोला मां मुझे विम्मी को भीख में ही दे दो,मां मैं उसके बिना जीवित नही रह पाऊंगा।माँ बेटे के मनोभाव को पहले भी समझ रही थी और आज तो वह खुद सुरेन में सम्माहित हो गयी थी,मां ने सुरेन को अपनी बाहों में कसकर आश्वस्त किया,बेटा विम्मी हर हाल में तेरी रहेगी।सुरेन को हिम्मत तो मिली,पर मन मे शंका बनी रही।हेमंत उसका बचपन का दोस्त था,सो अपने मन का दर्द उससे बयान कर रहा था।
शांतिशरण जी को सुरेन का अपने आप विम्मी को पसंद करना, अच्छा नही लगा,अपनी पत्नी के समझाने का असर भी उनपर नही पड़ रहा था।एक दिन शांतिशरण जी के बड़े भाई गिरधर लाल जी जो अपने गावँ ने सरपंच थे,उनके यहां आये।गिरधर लाल जी सुरेन को बहुत प्यार भी करते थे।उसे उदास देख उन्होंने पूछा कि सुरेन बेटा क्या बात है उदास लग रहे हो?कोई समस्या हो तो बता बेटा, मैं हूँ ना ,तेरी सब समस्या सुलझा दूंगा।
सहानुभूति के बोल सुनकर सुरेन की हिचकी बंध गयी,गिरधर लाल जी ने उसे बाहों में ले चुप कराने का प्रयास किया,पर सुरेन की हिचकी बंद ही नही हो रही थी ।सुरेन के रुदन को सुन उसकी माँ सुरेखा भी वही आ गयी।गिरधर लाल जी ने सुरेन को अपनी बाहों में लिये लिये ही सुरेखा की ओर देखा।अपनी आंखों के पानी को पोछते हुए सुरेखा ने सुरेन की व्यथा उनके सामने रख दी।गिरधर लाल जी सुलझे विचारों के थे,उन्होंने कहा कि वे ये समस्या निपटा कर ही गांव वापस जायेंगे, तुम अब निश्चिंत हो जाओ, मैंने सब कुछ समझ लिया है।
गिरधर लाल जी ने अपने भाई शांतिशरण से इतना ही कहा,भाई शांति तू तो शहर में रहता है, और मैं गावँ में,पर तू इतना भी नही समझा कि औलाद हमारी संतीति होती है जागीर नही,अरे उनके भी दिल होता है ,धड़कता है रे,कभी सुना तूने? शांतिशरण समझ नही पाये कि भाई क्या कहना चाह रहे है?
गिरधर लाल जी बोले शांति मेरी बात सुन अपना सुरेन बड़ा हो गया है,उसे अपने फैसले लेने का हक दे दे रे,क्यो उसे हमसे खोना चाहता है।घी के लड्डू जितना टेढ़ा भी मत बन कि सुरेन हाथ से छूट जाये।उसे अपना मित्र मान रे।
गिरधर लाल जी बोले जा रहे थे,शांतिशरण जी की आंखों के आगे से परदा हटता जा रहा था।उन्हें लग रहा था कि वास्तव में उन्होंने सुरेन के साथ अन्याय किया है।अगले दिन शांतिशरण जी अपने भाई और पत्नी के साथ विम्मी के घर जाकर उसके पिता से सुरेन के लिये विम्मी के रिश्ते की बात कर उन्हें शाम को घर आने का निमंत्रण दे आये।
शाम को अपना उदास चेहरा लिये सुरेन जब घर वापस आया तो वहां उसने विम्मी को अपने माता पिता के साथ बैठे पाया।आश्चर्य से देखते हुए उसके चेहरे पर मुस्कान दौड़ गयी,कृतज्ञता से जब उसने अपने पापा की ओर देखा तो उन्होंने आगे बढ़कर सुरेन को अपने से चिपटाकर दबा लिया।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
0 टिप्पणियाँ